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" ये कहानी है एक कंपनी की जो दूसरी बडी कंपनियों से जॉब वर्क लेकर उनकी निर्देशित वस्तुएँ- अधिकतर कम्पोनंट और फिटमेंट बनाती है, जिसका सालाना अर्थव्यवहार लाखो -------डॉलर्स का है , जिसमे ------ कर्मचारी है, जो अमरीका में 1956 में शुरु हुई।"“तो क्या हो गया?”
" कभी उस कंपनी के कर्मचारियों ने मिलकर एक क्रेडिट सोसाइटी बनाई । एक महिला कर्मचारी ने उनसे कर्जा लेकर अपने लिये कार खरीदी और तबसे वह अपनी कार में ही फॅक्टरी आती है ।"
“तो क्या हो गया?”
" वह कहती है- अब मैं ने जाना मुक्तता क्या हैं स्वच्छन्दता क्या है ।"
“हां, औरतों को कई बार आत्मविश्वास के लिये ऐसी- बातों की जरुरत पडती है।”
"वह महिला अपंग है।"
“ओs”
" सुबह कोई उसे व्हील चेअर समेत उठाकर कार में बैठा देता है। वह कार चलाकर फॅक्टरी आती है , तो कोई उसे उतार लेता है। शाम को लौटते समय फिर वही व्यवस्था।"
“अरे?”
" वह कहती है स्वच्छंदना का अर्थ जैसा मैंने समझा, शायद ही किसीने समझा होगा।
“उसे मेरा सलाम, ठीक कहती है वह !”
" जिस फॅक्टरी में वह काम करती हैं, उसमें मालिक से लेकर हर कोई अपंग है कोई पांव से, कोई हाथ से , कोई कान से, कोई आंख से!"
“ये कौन सा तरीका है कहानी कहने का?”
"वे सभी मानते हैं कि वही हैं सबसे सक्षम क्यों कि वे हतबलता से लडकर जीतना जानते हैं ।"
“ठीक कहा वे जिन्दगी को जानते हैं।”
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अगले सात वर्षों तक एक के बाद एक ऑपरेशन । अस्पताल ही घर । लेकिन अस्पताल में था प्यार,उष्मा , उसकी जरुरतोंका ध्यान रखने वाले लोग।
अपने घर लाया जाना और आस पडोस की चुभली नजरों के सामने कुछ लोगो के पास उसके लिये पडना- दोनो उसके लिये नई बातें थी। फिकटे, शरारते , क्ररता थी तो कु छ के पास बेपनाह दया । क्रूरता के साथ वह लड सकता था - हार भी जाता तो भी - एक संतोष लेकर कि उसने बिना लडे हार नही मानी । व्यंग को घूँट की तरह पी जना पडा तो भी- संतोष - रहा कि उसने कडुवे घूंट के बावजूद चेहरे पर हंसी बनाये रखी ताकि व्यंग कसने वाला उस पर हंस न सके । उसे व्यंग से , फिकरों से क्रूरता से नफरत नही हुई।
लेकिन उस पर उंडोली जाने वाली दया असह्य थी । उसे अपमानित करती थी , और वह उससे लड भी नही पाता । उसके जीवन की तमन्ना बन गई - कि वह दुनियाँ के सम्मुव्त एक साधारण व्यक्ति की तरह खडा सके और कह सके - लोमैं तुमसे तरह पेश आ सकता हूँ।
और ऐसा संभव भी हो गया । डाँक्टर ने हेन्टी के लिये अलयुमिनियम के दो पौर बनाए जो उसके घुटनों पर फिट बौठाई गए । आँपरेशन के बाद पहली बार हेन्टी बिस्तर से उतरा तो उसने देखा कि अब वह छः फुट दो इंच कद का एक भरपूरा आदमी था । किसकी नजर से नजा मिलाकर बात करना कितना आसान और कितना आनंददायी -था ।
लेकिन जब डाँ की फीस चुकाने का क्षण आया तो उन्होंने मना कर दिया - हेनी, मौ मानता कि जब तुम भी -किसी और के लिये कुछ ऐसा ही कर सको , तो मौ समझूगा कि मेरी फील मिल गई । सौदा महंगा था। कई बार ः कई लोगों के लिये कई माह से कुछ कत्ने के बाद हेनी ने पाया कि यह फीस तो चुकाए नही चुक रही । लेकिन उस ऋण में रहना भी आनंददायी ही रहा।
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(भाग 2 )
हमारी इस कंपनी का एक नाम भी है। लेकिन अभी कुछ समय के लिये मैं इसे दूसरा नाम देना चाहती हूँ। तो हम इसे क्ष कंपनी
के नाम से बुलायेगें - क्ष से क्षमता।
बात है कुछ बुरे समय की । कंपनी के बुरे दिन चल रहे थे। पिछले जमाने की एक सफल हो चुकी मुहिम के कारण कंपनी को
काम और पैसे मिल रहे थे लेकिन कुछ निराशा जनक काम भी हो रहे थे जैसे फोर्ड इन्स्टूमेंट कंपनी के लिये स्लिप रिंग बनाने
का काम। क्ष कंपनी के कारीगरों के लिये यह नया काम था जिसके गुर उन्हें सीखने थे।
स्लिप रिंग बनाने के लिये पहले प्लास्टिक पाउडर की एक बुलेट बनानी पडती हैं। इसके लिये पहले चाहिये बुलेट के नाप की
एक “खोल” (डाइ) । खोल में प्लास्टिक पाउडर भर कर उसे उंचे तापक्रम व उच्च दबाब पर गरम करते हैं जिससे प्लास्टिक
पाउडर पिघल कर खोल का आकार धारण करे। फिर खोल को ठंडा कर उसे दुबारा दबाव देकर तोडा जाता है ताकि प्लास्टिक
की बुलेट हाथ लगे। फिर उसमे तीन प्लॅटिनम की चूडियाँ जोडते हैं जिनपर कनेक्टिग तार सोल्डर किये रहते हैं।
यह तय हुआ कि कंपनी का एक “ मुखिया” फ्रँक, फोर्ड कंपनी के कार्यस्थल पर कुछ दिन बिताकर जानकारी लेगा जबकि कंपनी
का सीएमडी और दूसरा डायरेक्टर सारी “खोल” बनाने वाली कंपनियों को खंगालेंगे ।
सो “क्ष” का सीएमडी अपनी कुबडियों पर और डायरेक्टर जिसका नाम आर्ट था, अपनी व्हील चेयर पर निकल पडे। ब्रूकलिन
तथा लाँग आयलण्ड की इन्डास्ट्रियल एरिया में खोल बनानेवाली कई फॅक्टरियाँ देख डालीं।
“तुम्हें यह काम मिल रहा है ? तब तो तुम्हें शुभकामना के अलावा कुछ नही देना चाहता। ” एक फॅक्टरीवाले ने कहा।
“हम ये वाले खोल बनाने का काम ही नही ले रहे, फिर तुम बुलेट बनाने का काम कैसे कर सकते हो?” दूसरे फॅक्टरी मालिक ने
कहा । वही बात और भी कईयों ने दुहराई।
-------------------------------------------------------------- (आज इतना ही)
“ खोल तोडने” का काम ओलाफसन को सौंपा गया। वह एक भीमकाय व्यक्ति था जो गठिया से बुरी तरह त्रस्त था। खासकर रीढ की हड्डी के मुडने से वह झुका झुका रहता था और गर्दन में पडी ऐंठ के कारण उसे गर्दन घुमाने में भी दिक्कत थी। उंगलियां भी मानों स्पॅनर हों ऐसी ही थीं। लेकिन किसी जमाने में वह एथलीट रह चुका था इसलिये काम के अनुरुप शरीर को मोड लेना उसे बखूबी आता था। उसे बैठने के लिये ओक की मजबूूत लकडीसे एक भारी भरकम कुर्सी बनाई गई थी जिसमें मजबूती के लिये स्टील प्लेट भी लगी थीं।उसे काम करने के लिये कम उंचाई वाला एक खास बेंच भी कंपनी ने बनवाया था। उसी पर वह खोल तोडनेवाला हाइड्रॅालिक पम्प फिट किया गया।
ओलाफसन अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए उस हाथ पम्प को चलाता था ताकि खोल टूटे। फिर अपनी मुडी-तुडी उंगलीयों से बडी सफाई से प्लास्टिक का बुलेट बाहर निकालता।
टीम का दूसरा सदस्य था बिल विगाम। सिर की चोट के कारण उसके मस्तिष्क और हाथोंका समन्वय टूट चुका था। वह जो कुछ भी उठाने जाता, वही चीज गिर जाती। लेकिन हाथ-पम्प के हॅण्डल को वह दबाये रख सकता था। सो तय हुआ कि वह और फ्रँक एक बेंच पर एक साथ काम करेंगे। फ्रँक के हाथ पोलियो के कारण लूले पडे थे, लेकिन उंगलियों में कौशल्य था। जब बिल हाथ-पम्पको चलाता तो फ्रँक शीघ्रता से खोल को अन्दर करता , फिर टूटे खोल को खींचकर उसमेंसे बुलेट को बाहर निकाल लेता था ।
इस प्रकार काम की शुरुआत हो गई तो बिल की इच्छाशक्ति जागी। उसे यह मंजूर नही था कि चूँकि उसके हाथ चीजोंको नही उठा सकते इसलिये उसे फ्रँक के साथ काम बाँटना पड रहा है। वह लंच टाइम में अपनी उंगलियों से चीजें उठाने की और उन्हें एक मिनट - दो मिनट बिना गिरने दिये पकडे रहने की प्रॅक्टीस करने लगा। धीरे धीरे उसकी उंगलियों में वह समन्वय आने लगा। तब बडे गर्व के साथ एक खोलको कस कर मुठ्ठी में दबायें वह सीएमडी के पास पहुँचा और अपना हक जताया कि अब वह अपने हाथपम्प पर अकेला ही काम करेगा।
उसकी बात रखने के सिवा क्या चारा था ? क्ष कम्पनी ने फोर्ड कंपनी से एक और हाथपम्प उधार माँग लिया । लेकिन अब नई समस्या ये हुई कि फ्रँक उसे अकेले कैसे चलाये? ऐसे समय कंपनी के दूसरे डायरेक्टर वॅडस्वर्थ का कौशल्य काम आया। उसने हाथपम्प में रेसिप्रोकेटिंग एअर सिलिंडर लगाये- अर्थात एक सहायक पम्प जिसके कारण इस नये पम्प को चलाने के लिये अत्यल्प शक्ति की आवश्यकता होती थी जो फ्रँक के बसकी बात थी ।
आर्ट भी व्हील चेयर में बैठे- बैठे अपना दिमाग काफी चला सकता था। उसने देखा कि गरम खोल को ठंडा करने के लिये पानी में रखते हैं, इंतजार करते हैं, और गरमाये पानी को कई बार बदलना भी पडता है। उसने खोल ठंडा करनेवाले इन बरतनों को फॅक्टरी के प्लंबिग सिस्टम से जोड दिया ताकि उनमें पानी हमेशा बहता रहे और अपने आप ठण्डा होता रहे।
लेकिन काम के तरीकोंकी इतनी प्रगति होते होते कई दिन बीत चुके थे और बीत रहे थे, और क्ष कंपनी का पैसा खर्च हो रहा था । अब कुछ कारागीर काम सीख चुके थे । पहले दिनकी तुलनामें उनकी उत्पादकता दुगुनी हुई थी। काम की क्वालिटी भी सुधर गई थी । अब समय था कि फोर्ड कंपनी के साथ काण्ट्रॅक्ट की शर्ते दिखाकर मोटी ऑर्डर ली जाये ।
लेकिन टांय टायं फिस्स। हालाँकि फोर्ड कंपनी को क्ष कंपनीपर भरोसा भी था और सहानभूति भी, लेकिन उन्हें जहाँ से स्लिप - रिंग के ऑर्डर मिलने वाले थे, उसी कंपनी ने अपना वह काम समेट लिया था। सो फोर्ड को भी क्ष कंपनी का काण्ट्रॅक्ट रद्द करना पडा।
उद्योजकता में टिका रहना हो तो ऐसी घटनाओं पर आप शिकायत नहीं कर सकते , न ही हार मान सकते हैं।
कबीरा, चल खोज दूसरी बाट।
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