सोमवार, 9 नवंबर 2015

भगीरथाचे पुत्र -- अनुवाद

सन अठराह सौ साठ के आसपास
  • एक जलती दोपहर-

शिवालिक - हिमालय की दक्षिणी उपत्यकाओं में धवलगिरी नामक हिमाच्छादित मंदारमाला पूरब - पक्ष्चिम फैली हुई है।

शिवालिक श्रृंखला भी दो भागों में बँटी हूई है। एक है नयनादेवी धार तो दूसरी रामगढ धार। इन्हीं दो धाराओ के बीच बलखाती- मचलती और घुमावदार मंडले लेती हुई सतलज बहती है। तराई मे उतरती हुई थोडी दक्षिणवाहिनी हो जाती है।

ग्रीष्म के दिन चल रहे थे। दक्षिणवायु अपना सौम्य रुप छोडकर प्रचंड वेगसे शिखरों से टकरा रहा था। इस टकराव में उसकी हार सदा ही अटल थी। प्रस्तर चट्टान पर बिखरती सागर - लहरों की तरह वह भी हिमशिखरों पर टकरा कर शतशः विदीर्ण हो जाता। फिर गरगराता हुआ चारों दिशाओं में नाचने लगता।

इस वर्ष भी इस उपक्रम में कोंई खण्ड नही था। चारों दिशाओ में बिखरने पर वायु का एक प्रवाह पूरब की ओर तिब्बत की दिशा में बह रहा था। ऐसा प्रचंड सतलज का प्रवाह । लेकिन उलटी दिशा के वायु के वेग में वह प्रवाह भी मूर्च्छित सा ठहर रहा था । धूलिके चक्राकर आवर्त सतलज के प्रवाह पर चलते हुए दूर -दूर तक जाकर विलीन हो रहे थे।

पूरा प्रदेश घने जंगल से आच्छादित था। सीधी ऊँचाई में चालीस, साठ फूट ऊपर तक उठते आगणित वृक्ष ऐसे सटकर खडे थे कि उनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल पड जाय। वहॉं सीशम थे, बाँस के जंगल थे । चीड की टहनियोंसे हवा गुजरती तो जैसे गाय पूँछ फटकारे, कुछ ऐसी ही चमत्कारी सीत्कार वातावरण में गूँज जाती ।

ऐसेही एक बाँस के जमावडे से रास्ता बनाता हुआ एक उग्र नागा बैरागी चला जा रहा था। वह सतलज के दक्षिण तट से उगम तकके प्रवास का आकांक्षी था। इसे नदी की अपसव्य प्रदक्षिणा कहते हैं जिसका तंत्रसाधना में अतिशय महत्व है। पहले तिब्बत में मानसरोवर तक पहुँच कर सरोवर से बाँये मुडकर सतलज के उत्तरी तट पर प्रदक्षिणा पूरी होती थी।

प्रवास कोई खास सुखप्रद नही था। सतलज तट की चट्टानें हिमालय की अन्य चट्टानों की तरह भुरभुराती हुई थीं। कोई एकाध गोल मटोल पत्थर - उसके आधार से उसे घेर कर टिकी हुई महीन बालू - बीच में कभी कभार लाल धारियाँ बनाता हुआ कोई मुरुम (?) का पत्थर । सारा कुछ ऐसा कि पाँव फिसले तो कपाल-मोक्ष का संकट । गिरते हुए किसी झाड- झंखड को आदमी पकड ले तो सहायता  तो दूर, उलटे भुरभुरी बालू का वह झाड उखड कर हाथ में आ जायेगा और आदमी अपनी  गतिके आवेग में गिरता चला जायगा। खैर। इन सारी कठिनाइयों को अपने मनोबलसे एक ओर ठेलते हुए बैरागी अपनी ही धुनमें चला जा रहा था। जैसा उग्र उसका निश्चय था वैसा ही उग्र भेष भी था। मस्तक पर से लम्बे घने बाल बारंबार कपाल और आँखो पर आकर पसर जाते । गठी हुई अंगुलियों से वह उन्हें पीछे धकेलता । कपाल पर पसीना गहरा चुका था और 

उसकी धार नाक के पास से चूकर दाढी में लुप्त हो  रही थी । उसीके साथ कपाल पर पोती हुई भभूती और रोली भी बहकर आ 

रही थी । भस्म पुता हुआ पेट लोहार की भस्त्रिका की भाँति धपधप कर रहा था। अपनी लाल उग्र आँखों से वह दूर तक 

निहारता , फिर झाडियों से राह बनाता हुआ आगे को चलता।


बैरागी की काँखमें लम्बा मोटा, इस्पात का चिमटा था। इतना लम्बा कि यदि संभल न सके तो चिमटे को जमीन पर रोपकर उसका सहारा लिया जा सके। लेकिन एकबार चिमटा जमीन पर गाड दिया तो फिर एक दिन - एक रात उसी स्थान पर यात्रा खंडित करनी पडती है।इसलिये वह मनोयोगपूर्वक चिमटे को काँख में दबाये छोटे लम्बे डग भरता हुआ जा रहा था।

चलते चलते अचानक उसने देखा कि राह संकुचित हो रही है। परली तरफ का पर्वत (टेकडी-?) जो अबतक दूरस्थ था अब बिलकुल समीप आकर सतलज का मार्ग अवरुद्ध कर रहा था। इस अवरोध से क्रुद्ध सतलज धारा तीव्र गर्जना से पर्वत को डिगाने का निरर्थक प्रयास कर रही थी, और फिर उस कष्टसाध्य संकीर्ण रास्ते को पार हाँफती हुई आगे बढ रही थी।

बैरागी अपार आश्चर्य में डूब गया। मुख का उग्र भाव जाकर अब वहाँ विस्मय भाव आ बसा । मिट्टी - रोडे की राह छोड कर वह सतलज के पानी में उतर गया । यहाँ सतलज के दोनों तट इतने समीप थे कि भँवर से बन रहे थे। यदि वह आँखे मूँदकर थोडासा चले तो कहना कठिन है कि किस किनारे पर जा निकलेगा ।

दोनों किनारों पर गगन चुम्बी - वृक्षों की उँची फुनगियाँ आकाश में ही मानों एक दूसरे में घुलमिल रह थीं। नदी के संकरे पात्र में तरह तरह के गोल पत्थर एकत्रित हुए थे। इन्हीं से टकरातो हुए पानी किसी तरह अपना रास्ता बना रहा था। उसकी वेदना को आकाश से छुपाने की गरज से दोनों तटों के वृक्षों ने अपनी शाखाएँ आपस में सटाकर चंदोबा सा बना लिया था। मस्तक ऊँचा कर देखने पर आकाश था, और दृष्टी को संम्मोहित करती हुई वृक्षो की डोलती शाखाएँ ।

देरतक बैरागी प्रकृती के इस कौतुकको देखता हुआ खडा रहा।

फिर एक दीर्घ निश्वास के साथ कपाल पर से पसीना पोंछता हुआ बोला- हे ईश्वर तेरे कौतुक निराले हैं।

तभी काँधेपर पानी की पखाल लिये एक आदमी दूसरे हाथ से पाजामे को ऊपर उठाये झाडी को चीरता हुआ नीचे की ओर आता दिखा। बैरागी को देखकर वह भी थमक गया। पास आकर आदर से बोला - मत्था टेकूँ महाराज ।

आसीरबाद । बैरागी पुटपुटाया और अपनी पैनी दृष्टीसे उस मनुष्य को देखता रहा। बैरागी से आँख मिलाने का साहस मनुष्य ने नही किया । अपनी राह वह बढनेही वाला था कि बैरागी गुरगुराया -  सुनो।

अगला कदम उठाने का साहस उसमें नही था । विनम्रता से बोला - आग्याँ हो देवता”

इस अस्थान का नाम क्या है?’’

मृदु स्वर से पथिक को थोडा ढाढस बंधा तो वह बोलता चला गया -- 
इस ठिकाने को सिरापा कहते हैं महाराज । माता सतलुज यहाँ दोनों किनारों से बाट पूछती चलती है। पुरानी कथा है महाराज कि सत्ययुग में महाबली भीम ने माता ई का प्रवाह यहाँ रोक लिया था ।’’  
’’ रे मूरख । भीम द्वापर युग में था कि सत्य युग में?’’ 

हम अनाडी क्या जानें , देवता । लेकिन यह सत्य है कि भीम ने प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया था। और ये जो पहाडियों चहुँ दिशामें पसरी हुई हैं- अर्जुन ने सूं सूं तीर चलाकर इन्हें पीछे ठेल दिया था । क्यों ? तो जब भीम ने प्रवाह को रोक दिया तो पानी इतना चढा कि दुरपती के बाल भींगने लगे। फिर क्या था । अर्जुन ने बाणों से पहाडों को ढेल कर पीछे किया। तब कहीं नदी के पानी के लिये जगह बनी । बिलकुल सच्ची कथा कहूँ हूँ देवता ।’’ 

फिर आगे क्या हुआ?
तभी  मुर्गा कुकूड कूँ बोलने लगा । उसका बखत अभी नही हुआ था। लेकिन भीम ने दुरपती को कहा था यहाँ एक ही रात्री में तेरे लिये मानसरोवर - जैसा सरोवर बनाऊँगा। वह इन दोनों पहाडियों से पीठ सटाकर बैठा रहा। पानी चढने लगा। कृमि कीटक मरने लगें। मानों अब जलप्रलय ही होके रहेगा। देवताओं को दया आई।उन्होंने मुर्गे को आज्ञा दी -- कुकुड कूँ करो। फिर क्या था? भीम को उठना पडा।

ऐसी कथा है महात्मा। यहाँ तो दोनों पहाडियाँ ऐसी सटी हैं कि बाघ एक ही छलांग मे इधर से उधर जाता हैं। शिकार के पेट का पानी भी नही हिलता ।

उस पुरातन कथा और जलप्रलय के प्रसंग को और कथा कहने वाले को भी विदा कह कर बैरागी आगे चला।

चढाई पार कर थोडा समलत आया तो बैरागी ने आश्चर्य से देखा- सचमुच यहाँ आकर पहाडियाँ दूर - दूर फैल गई थी- लगा कि वाकई अर्जुन के बाण से पीछे सरक गई थीं । उन्हीं के बीच इठलाती और घूमघूम कर दिशा बदलती सतलज बही जा रही थी।

आगे समतल था। तेज गति से चलते हुए बैरागी सिरापा से दो कोस दूर गाँव के पनघट पर पहुँचा । वहाँ दो चार स्त्रियाँ बालू से रगडकर अपने तांबे काँसे के घडे साफ कर रही थीं। बैरागी को देखकर उन्होंने आँचल सिर पर ले लिया।

बैरागी ने पूछा कौन बस्ती?

उसके उग्र रुपको देखती स्त्रियाँ चुप रही । बैरागी ने फिर कडकर पूछा - अरी उत्तर क्यों नही देती ? कौन बस्ती?

एक स्त्री ने किसी यह संभलकर कहा मत्था टेकूँ महाराज । ये भाकडा है।
ये भाकडा है - बैरागी ने  दुहराया

पनघट छोडकर वह बस्ती की और मुडा। कुछेक घर इधर, कुछ उधर - बस्ती बिखरी हुई थी । खेत में कही गेहूँ, कहीं चना बोया था जो
 कटाई पर आ चला था। किसी के आंगन में नींबू दीख जाता तो किसी के केला। बीच में एक घेरे वाले पीपल की टहनी पर लाल कपडा 
बंधा था। अर्थात वहाँ मंदिर था। पास जाकर बैरागी ने देखा - नरसिंहका मंदिर था। बैरागी मूर्ति के सामने खडा रहा। फिर बांये पैर को
 उठाकर दाहिनी जंघा पर रख लिया। बांये हाथ से चिमटे को जमीन पर गाडकर पकड लिया। इस प्रकार गरुडासन सिद्ध हुआ।

अर्थ स्पष्ट था। बैरागी किसी के पास याचना नही करेगा। उस कडकती धूप में किसी गृहस्थ का कर्तव्य था कि बैरागी के लिये रसोई सामग्री प्रस्तुत करे। 

लेकिन आज गाँव के सारे बडे बूढे पुरुष परली पार बालकनाथ के मेले में गये थे। पीछे रहीं स्त्रियाँ और बालबच्चे। स्त्रियाँ सिर पर आँचल लिये घर के अंदर घुसी रहीं। बालबच्चे अवश्य कौतुहल वश जमा हो गये। लेकिन दरवाजों की आड से बुलावा आनेपर एक एक चले गये।

वायु अचानक स्तब्ध हो गया था। धूप मानों ज्वाला लेकर उतरी थी । जमीन और पहाडियाँ भी सुबह की झेली गर्मी को वापस फेंक रही थीं। दूर क्षितिज में मृगजल की लहरें दोलायमान थीं। पसीने की धारा फूट पडने पर बैरागी का गरुडासन जरा भी नही हिला।

बाद में - बहुत बाद में बैरागी को समझ आया कि इस गाँव में उसके भोजन की व्यवस्था कोई नही करने वाला ।उसकी भौंहे तन गईं । आँखों की लाली अब क्रोध में और उग्र हो चली। दहिने हाथ की मुठ्ठी भींच गई।

क्रोध में भरभराते हुए उसने गरुडासन खोला। झुककर मुठ्ठीभर माटी उठा ली। उसे ही भभूती की तरह शरीर पर रगडते हुए उसने गर्जना की -- यह पूरा गाँव पानी के नीचे डूब जायेगा। 

जो स्त्रियाँ दरवाजे की फाँक से झांककर उसे देख रहीं थी . उन्होंने धडाक से दरवाजे बंद कर लिये और  एक दूसरे से लिपटकर बिलखने लगीं।
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