रविवार, 20 अक्तूबर 2013

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

विदा vida – जी.ए. कुळकर्णी

विदा vida – जी.ए. कुळकर्णी

लेखक - जी.ए.कुलकर्णी
कालखंड - १९७० के आसपास
विदा
-- अनुवाद लीना मेहेंदले
सीमा लांघकर परली पार जाने की रितु आ गई है। लेकिन मुझे ले जाने के लिए  पताका से सजा रथ नहीं आएगा। मेरी विदा - वेला में तूती बजाई जाए या मेरे आगमन के उत्सव में नगाडे बजाए जायें ऐसी कोई भी भव्य उपलब्धि मेरी नहीं रही है। मेरे लगाए पौधे आकाशस्पर्शी देवदार वृक्ष नहीं बने, और मेरे शब्दों ने दिव्यता से नाता जोडने वाला कोई महाकाव्य नहीं रचा।
यहाँ मेरे लिए कोई महाद्वार नहीं खुलेगा। मेरा सारा प्रवास धूलभरे रास्ते पर खाली पाँवों से हुआ है। लेकिन मेरे लिए छोटा दरवाजा खोलने वाले द्वारपालों, यह ध्यान रहे कि मैं संपूर्ण दीन - हीन होकर तुम्हारे पास नही आया हूँ। सर्वत्र फैले हुए चौंधियाते सूर्य प्रकाश में क्षणैक ही सही, पर मेरा अपना तारा मैंने कहीं चमकाया है। उसके सुवर्ण - वैभव में मैंने देखी है समुद्र में डूबती हुई द्वारिका के मन में बसा एक गोकुल। आते हुए मेरे हाथ तुम्हें खाली दिखते हों पर वे उतने खाली भी नहीं। उनकी उंगलियों पर मारवा की गत उतर चुकी है। कभी उन उंगलियों से निवाला खाते हुए बच्चों ने खुशी की किलकारियाँ भरी हैं। लाल आँखों वाला एक पीला पंछी बड़े विश्र्वास और प्रेम से उन उंगलियों पर बैठा किया है। यहाँ आते हुए मैं एक क्षुद्र याचक नहीं हूँ। मेरे पग रखने भर जगह के लिए उचित मोल चुकाकर बिना किसी दीनता के मैं यहाँ पहुँचा हूँ।
इसी से कहता हूँ द्वारपालों, कि मेरे लिए दरवाजे के पट खोलते समय तुम्हारे व्यवहार में थोड़ी नम्रता हो। मेरे प्रति तुम्हारे शब्द आदरयुक्त हों। क्यों कि नंगे, धूलभरे किन्तु अपने ही दो पैरों से चलकर मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ।
हे कालपुरुष, अब मैं चला हूँ सीमा के उस पार, तो मुझे स्वच्छ, निरंजन मन से विदा देना। तुमने मुझसे मेरा बहुत कुछ छीना है। मेरी आशाएँ, मेरे सपने, मेरे प्रियतम व्यक्तियों को तुमने खींचकर मुझसे अलग कर दिया और निर्दयता पूर्वक मुझे अकिंचन कर दिया। इसलिये मैं कई बार तुम पर क्रोधित हुआ, तुम्हारा द्वेष करता रहा, यह सच है। लेकिन आज की घड़ी में मेरे प्रति कोई किन्तु तुम्हारे मन में न रखो। इस चलने की बेला में मेरे मन में कोई उद्वेग नहीं है। पहले भी मैंने तुम्हारा द्वेष निरर्थक ही किया, यह अनुभूति भी अब मुझे है।
मुझे जो सुख मिला वह तुम्हारे प्रेम के कारण नहीं था। उसी प्रकार जो यातनाएँ मुझे भोगनी पडीं वे भी तुम्हारे क्रोध के कारण नहीं थीं। तुम्हारे सम्मुख मैं असहाय था। पर तुम भी एक अविरत गति से घूमने वाले पहिए में बंधे, असहाय थे। उन घटनाओं के निर्माता तुम थे नहीं - वे बस घट गईं। हर पल अनेकानेक बुलबुले उठते हैं, और फूट जाते हैं। किन्तु उनके फूटने से प्रवाह खंडित नहीं होता।
और यह विशेष ध्यान देकर सुनो। जीवन इतने अनंत रूपों वाला है कि संपूर्णतया मेरे जैसा जीवनपट लेकर पहले भी कोई मनुष्य नहीं हुआ और आगे भी कोई नहीं होगा। इस दृष्टि से सोचो तो हरेक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अद्वितीय ही है।
मेरे जाने से एक समूचा, अद्वितीय भाव - विश्र्व पूरी तरह बिखर जानेवाला है। वह दुबारा फिर कभी जनम नही लेगा। इसी कारण, उसे विदा देते समय तुम कोई न्यूनता मत रखना। मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगा मुझे मालूम नही। कदाचित मैं शून्य बनकर शून्य में मिल जाऊँगा। या कदाचित यहाँ से भी अधिक अर्थवाही और तर्क संगत वह जगह होगी। वहाँ तुम्हारी पहुँच नही होगी। या यूँ समझो कि तुम्हारे आने या न आने से कोई अन्तर नहीं पडेगा। मैं भी इस राह दुबारा कभी नहीं आऊँगा। एवंच, यह हमारी आखरी मुलाकात है।
चाहे जिस तरह भी हो, मेरे जीवन पर्यंत तुम मेरे सहप्रवासी बने रहे। अब हमारे रास्ते जुदा हो रहे हैं। ऐसे अंतिम क्षण में तुम मुक्त मन से मुझे जाने दो क्यों कि अब मैं चल पडा हूँ उस पार। तुम स्वच्छ, निरंजन मन से मुझे विदा दो।
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शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

थाप thaap – लीना मेहेंदळे

 थाप thaap – लीना मेहेंदळे

जब कहानी का भूत कमरे में आया
-- लीना मेहेंदले

घटना है सन्‌ १९६९ की जब मैं पटना विश्र्वविद्यालय की छात्रा थी और विश्र्वविद्यालय के महिला छात्रावास में रहती थी। एम.ए. और एम्‌.एस्‌.सी. के पहली वर्ष की छात्राओं को सबसे ऊपर दूसरी मंजिल पर कमरे मिलते थे। वहाँ खुली बालकनी, नई सहेलियाँ, नया विश्र्वविद्यालय आदि की वजह से पढाई का सिलसिला कुछ कम ही रहता था। नियमानुसार साढ़े छः से साढ़े आठ बजे तक स्टडी पीरियड हुआ करता था। लेकिन यह समय भी प्रायः गप्पें लडाने में ही बीतता। बहरहाल मेरे रूम में हम तीनों के लिये एक मुसीबत थी- रोज रोज प्रॅक्टीकल्स की रिपोर्ट लिखना- मुझे फिजिक्स में, अपराजिता को प्राणिशास्त्र में और माया को मानसशास्त्र में। सुविधा के लिये हमने आपस में यह नियम बनाया था कि जबतक तीनों में से किसी एक का भी प्रॅक्टीकल रिपोर्ट लिखना बाकी हो, स्टडी पीरियड में न कोई रूम से बाहर जायगी और न किसी की कोई सहेली बाहर से आयेगी। कई बार इस नियम के कारण हमें दूसरी लडकियों के तानों का शिकार भी बनना पडता।
ऐसी ही एक शाम थी जब तेज-तेज हवाएँ चल रही थी। बारिश के आसार थे। अचानक बत्त्िायाँ गुल हो गईं। हमने मोमबत्त्िायाँ जलाई और हवा को रोकने के लिये कमरे का दरवाजा भिडा दिया। फिर पढाई का मूड किसका रहना था? माया का प्रॅक्टीकल लिखना बाकी था। मैंने और अपराजिता के गप्पें लडानी शुरू कर दीं। पहले फुसफुसाहट में, किताबों के ऊपर से आंकते हुए- फिर तसल्ली से, किताबें अलग रखकर। बातों ही बातों में बातों का सिलसिला भूतों पर आ पहुँचा। इस बीच कई लडकियाँ बालकनी में पहुँच कर बातें कर रही थीं जिसका हमें पता ही नही चला। ज्यों ज्यों भूतों की बातें बढती गईं, माया का ध्यान भी पढाई से हटकर कहानियों पर आ गया।
कुछ दिन पहले पढी हुई एक कहानी सुनाना मैंने शुरू किया। चार दोस्त थे। उनमें से एक को कोई सिद्धी मिल गई जिससे भादों की अमावस की रात को एक भूत बुलाया जा सकता था जो खजाने दे सकता था। पहले-पहले प्रयोग के लिये सिद्ध ने अपने तीनों मित्रों को भी बुलाया। एक शमशान में जाकर मंत्र-तंत्र की सहायता से भूत बुलवाया गया और उसे आज्ञा हुई की खजाना चाहिये। भूत ने पहले मनुष्यबली की माँग की। सिद्ध के पास सोचने के लिये समय नही था। उसने फौरन अपने एक पडोसी का नाम लेकर उसे बलि बताते हुए कुछ मंत्रपाठ किया। थोडी ही देर में मित्रों ने देखा कि सामने पैसे भरी एक थैली पडी थी। लेकिन दूसरे दिन अखबारों में पढने को मिला की सिद्ध के पडोसी का किसी ने गला दबाकर खून किया था।
दिन बीतते गये। उन तीन मित्रों में से एक को कहीं बाहर नौकरी मिल गई। करीब दो वर्षों के बाद उसे पता चला कि बाकी दो मित्रों का रहस्यमय स्थितियों में खून हुआ था। इस मित्र को रहस्यभेद समझने में देर न लगी। साथ यह भी ख्याल आया कि हो न हो अगले वर्ष भादों की अमावस को शायद उसका ही नंबर है।
अगले वर्ष भादों की अमावस को वह मित्र एक गाँव में शादी पर निमंत्रित था। अचानक उसे ऐसा लगा मानों दूर कहीं से तेज हवा, आंधी पास आ रही हो। डरा हुआ तो वह था ही, उसने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया और कमरे की सारी खिडकियाँ, रोशनदान और दरवाजे बंद कर लिये। अन्दर एक पेट्रोमॅक्स जल रहा था। जीवन से करीब करीब हताश यह मित्र एक बिस्तर पर लेटा रहा। आंधी की आवाज धीरे धीरे पास आती गई और उसने मानों बवण्डर का रूप धर लिया। अचानक पेट्रोमॅक्स की बत्ती भी भडककर बुझ गई। और तभी दरवाजे पर एक जोरदार थाप पडी................
और तभी हमारे दरवाजे पर वास्तव में एक जोरदार थाप पडी और झन्नाटे से दरवाजा खुल गया। माया की तो चीख ही निकल गई। अपराजिता ने रिफ्लैक्स ऐक्शन से अपनी आँखें ढँक लीं। एक क्षण को मेरे भी हाथ-पैर सुन्न हो गये। और एक लडकी जो दरवाजा खोलकर अन्दर आ रही थी, अवाक्‌ दरवाजे पर ही खडी रही।
चीख की आवाज सुनकर और भी लडकियाँ आ गईं। पूरी बात जानने पर तो हंसी के फव्वारे छूटे जिसमें हम सभी शामिल हो लिये। लेकिन उस एक पल की याद अब भी भुलाये नही भूलती।
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अग्निवृक्ष agnivriksha – वैशाली पंडित

अग्निवृक्ष agnivriksha – वैशाली पंडित


अग्निवृक्ष
मराठी लेखिका -- वैशाली पंडित
अनुवाद -- लीना मेहेंदले
चूल्हे में लकडियाँ सरकाकर रेखा फिर रोटी बेलने के लिये झुक गई। चूल्हा अब सनसनाकर जल रहा था। हरी चूडियोंसे भरे - भरे हाथ वृत्ताकार घूम रहे थे। बेलन के नीचे चाँद सी गोल गोल रोटियाँ बन रही थीं।
चूल्हे की लपटें लम्बोतरे आकार में ऊर्ध्वस्वल हो रही थीं। ठीक ऐसी ही है लम्बोतरे आकार में उस पेड की जडें भी। लेकिन पेड के तने से फूटी वे जडें जमीन के अंदर धंसी जाती थीं - ये अग्निशिखाएँ ऊपर जानेको ललक रही थीं।
'ऐ बहू, बनी नहीं अभी तेरी रोटियाँ ? यहाँ पंगत रूकी हुई है। ले आओ, रोटी परोसो।
पैर पटकती हुई सास भाजी का बर्तन उठाकर बाहर आई। रेखा भी रोटियोंका डब्बा लिये उसके पीछे लपकी।
उस छोटे से शहर में नई नवेली दुल्हन बनकर अभी हाल में ही तो आई है रेखा। पती दिनू - या दिनकरराव, भोजन की 'मेस ' चलाता है। तीर्थ का क्षेत्र है। मनौती माँगने और समुद्र - स्नान से मनौती पूरी करने के लिये सैकडों ब्राह्मण पुरुष आते है। 'भोजन -गृह ' को ग्राहकों की कमी नहीं है। कमी थी काम करनेवाले हाथों की ! ऐसे हाथ जो काम भी करें और मेहनताना भी न माँगे।
लंबी पंगत में ग्राहकोंको रोटी परोसते हुए रेखा अब भी गडबडा जाती है। और इधर तो उसके दिलो-दिमाग में वह पेड छाया हुआ है। उसकी पतली पतली जडों ने जमीन में गहरे उतरने से पहले पेड के तने पर जो नक्काशी की है, रेखा की आँखों में वही नक्काशी नाच रही है। साथ ही उस पेड का सुडौल आकार !हवा में मंद मंद झूलती रहनियाँ। बाकी सारी झाडी-झंखडियोंके बीच दूर से ही उस पेड ने रेखा को बरबस अपनी ओर खींच लिया था।
'बहू !'
सास की धमकी भरी आवाज से रेखा अचानक बौखला गई। सच तो है, अपने ही खयालों में खोकर वह एक ही ग्राहक के सामने रुक गई थी और उसकी थालीमें चार रोटियाँ डाल चुकी थी -  ग्राहक भी उसकी ओर कुछ शंका की नजर से ताक रहा है - दिमाग से ठीक-टाक तो है यह लडकी ? लेकिन सबसे बुरा यह कि अंदर से बैठक की चौखट लांधकर दिनू अब उसे बुला रहा है। क्रोध से उसकी आँखे उफन रही हैं। 'माई मेरी !' रेखा नख-शिख तक थरथरा गई। पैरों में थोडी ताकत जमा कर किसी तरह बैठक घर में पहुँची।
'कान के नीचे बजा दूँगा फिर किसी ग्राहक को तकती रही तो !' बन्दूक की गोलियों की तरह शब्द दाग कर वह चल दिया पानी परोसने को।
रेखा सहम गई। फिर चुपचाप रसोईघर में वापस आई। एक एक चीज समेटती रही। मन को रोकते - रोकते भी यादें आती रहीं - लुढकती रहीं . . . ।
सात बहन-भाईयों का घर ! गरीबी की मार। रेखा ही सबसे बडी इसलिये घर की हालात को सबसे अधिक समझनेवाली ! संवेदनशील गजब की ! चित्रकार जैसी पारखी नजर। लेकिन केवल नौंवी तक पढाई कर पाई। कोंकण के ब्राह्मण परिवारों में यही तो कहानियाँ हैं। अशिक्षित, पति-समर्पित पलियों का पालना हर वर्ष डेढ वर्ष में चलने लगता है। पहली लडकी हुई तो नूतन प्रसूता माँ और छोटे भाई बहनों की देखभाल उसी के जिम्मे आती है। फिर कहाँ की पढाई ? जैसे ही अठारह वर्ष पूरे हुए, विवाह मंडप में उसकी रवानगी हो गई।
रेखा के पास कोई चारा भी तो नहीं था। केवल एक नारियल के साथ कन्यादान स्वीकार करे ऐसा दूसरा ब्राह्मण लडका कहाँ मिलेगा ?
और लडका भी कोई ऐसा-वैसा नहीं। अपना घर है। अब अलग बात है कि भोजनगृह चलाता है - लेकिन इसका यह अर्थ भी है कि दो जून रोटी कहीं नहीं जाती - देह को पूरा कपडा मिलता रहेगा।  घरमें केवल लडका और माँ। ननद - देवर का कोई झंझट नहीं ! अब औरत जात के लिये इससे अधिक क्या चाहिये ?





दिनकरराव को रेखा ने भी देखा था। हाँ, ना कहने का प्रश्न ही नहीं था। घरसे खानेवाला एक मुँह कम हो जाय, यह पहली आवश्यकता थी।
लेकिन दो पहर नदीके घाट पर सारे कपडे धो चुकने के बाद एकान्त देखकर रेखा जी भर के रोई थी। फिर सपनों के सजीले अनदेखे राजकुमार को मन की अतुल गहराइयोंसे निकाल कर हलके से नदी की तरंगोपर उतार दिया। निराशा का कंबल ओढाकर उसे विदा कर दिया - दूर दूर बह जानेके लिये।
रेखा की तुलना में दिनू कहीं भी तो नहीं था। काला, भद्देपन की ओर झुकता हुआ चेहरा। तिसरी कक्षा पास ! लेकिन बाप के जमानेके भोजन-गृह से पैसा आ रहा है, इसीसे उसमें रम जानेवाला - अस्ताव्यस्त फैला हुआ शरीर, वैसी ही विचार ! उसने भी देखा - दान-दहेज का मोह न करे, तो लडकी सुंदर थी - दस आदमियों का घर संभाल रही है - तो सौ ग्राहक भी संभाल लेगी।
फेरे लेते हुए रेखाने मैके का हुंकार स्पष्ट सुना - जो कह रहा था - चलो एक लडकीसे तो जान छूटी ! उस हुंकार ने उसके सारे भाव बंधन जला दिये जो एक नाजुक दिल में हो सकते हैं। इधर ससुराल के प्रतीक रूप जो गांठ उसके आँचल में  पडी हुई थी वह भी दमघोंटू ही थी, लेकिन आजतक अप्राप्य रेशमी वヒा की सुगंध ने उसे थोडा धीरज दिलाते हुए संभाल लिया था।
शीशे से छिटककर नाचते हुए धूप के टुकडे की तरह यादें उसके साथ आंख मिचौली खेल रही थी। मन को समेटते हुए उसने घडी देखी। दो बज रहे थे। यानि ग्राहकों का समय खतम ! अब घर के लोग खायेंगे। पति और सास तो सुस्ताने चले जायेंगे लेकिन उसे सारे बरतन साफ करने हैं। चूल्हे पर गोवर - मिट्टी की लिपाई करनी है। सारे अन्न - पदार्थ ढाँक कर रखने है। लेकिन उसके बाद..... उसके बाद वह होगी और होगा वही पेड - उसका अपना।
आज कुसुम से कहूँगी थोडी ज्यादा लकडियाँ तोडे - उतना ही समय होगा उससे सुख दुख बाँटने का।
रेखा थोडी सी खिल उठी। जल्दी से थालियाँ सजाकर उसने सास और पति को आवाज दी।
'माँ, आज मंदिर में बडा अभिषेक है। बीस लोग ज्यादा होंगे पंगतमें -जरा जल्दिसे रसोई शुरू करवाना। '
'रे दिनू, रसोई का क्या है रे ! मैंने डेढ दो सौ लोगोंका भी खाना बनाया है। लेकिन अपनी इन महारानी से कहो - नदी से जल्दी लौटेगी ! अब मुझे बूढी से इतना काम नहीं होता है रे !'
' ये भी क्या चक्कर है ? कह क्यों नहीं देती कुसुम से कि रेखा नही जायेगी नदी पर !'
'अरे, आदमी को जोड कर रखना पडता है बाबा, दोनों जनीं नदी पर जायेंगी, तो उतनी ही ज्यादा लकडी लायेंगी - उससे रसोई में ईंधन की बचत होगी। नहीं तो अकेली कुसुम जितनी लाये उतने भर से क्या होता है ? रोज पच्चीस आदमी के स्नान के गरम पानी के लिये लकडी चाहिये बाबा !'
'तो उससे कहो बालू को ले जायेगी - क्यों रेखा को ले जा रही है ? पिछले चार दिन से देख रहा हूँ।'
'बालू गया है तहसील में बुआ के घर - उसकी परीक्षा का सेंटर है वहाँ। आ जायेगा - दस बारह दिनों की तो बात है। मुझसे पूछकर ही ले जा रही है कुस्मी - मैंने भी कहा ले जाओ ! दो बोझ ज्यादा लकडी तो आ जायेगी घर में !'
'ठीक है, वरना विदुषी जी तो कुछ किताब विताब लेकर बैठ जाती हैं, उससे तो यही अच्छा ! रेखा की ओर देखते हुए दिनू भात में दही मिलाने लगा।
खाना हुआ, साफसफाई भी हुई। फिर स्कूल की आधी छुट्टी में जिस उत्साह से बच्चे निकलते हैं, उसी उत्साह से साडी ठीक - ठाक कर रेखा कुस्मी के घर तक आ गई।
कुसुम उसीकी राह देख रही थी। गडाँसी उठाकर एक डबल पान मुँह में ठूँसते हुए उसने रेखा से पूछा - 'क्यों भौजी, हो गया खाना-वाना ?'
'हाँ ! बरतन भी कर लिये।'
'दिनू को औरत बाकी अच्छी मिल गई काम के लिये। क्यों भौजी, इस साल हमारे लिये कोई लड्डू - वड्डू का इन्तजाम है कि नहीं !'
'चल हट, तू कुछ भी बोलती है।'
'कुछ भी कैसे, अब छह महिने हुए ब्याह को। अब क्यों न तैयारी हो ?





बातों बातों में गांव पीछे छूटा। दोनों नदी की ओर बढ रही थीं। मिट्टी की राह लेकिन रेखा को वहीं किसी सुंदरी के सीधे मांग जैसी लग रही थी। दोनों ओर कंटीली झाडियाँ और दहिनी ओर नदी पर बना विशाल पूल ! पूल की कमान से गुजर कर पनघट की सीढीयाँ, और वहीं पर उसका वह सजीला पेड।
रेखाने दौडते हुए सीढीयाँ पार कीं। नीचे झुककर नदी के पानी को एक बार थपथपाया - जैसे मंदिर में जाते हुए कोई धंटी बजा दे। कुसुम पीछे पीछे थी लेकिन अब रेखा उसका अस्तित्व भूल चुकी थी।
'बस भौजी, लग गई तेरी समाधी ? अब बैठी यहीं पर ! मैं लकडियाँ तोड लूँ तब तक ! लेकिन पानी में ज्यादा नीचे नहीं उतरना। फिर रेखा के अनमनेपन पर आश्चर्य करते हुए वह आगे बढ गई ।
रेखा को भी और किसी बात का भान नहीं था। सब कुछ भूलकर वह उसी पेड को देख रही थी।
अहा, कैसा सलोना रूप था। बमुश्किल उसकी कमर तक उँचाई का। टहनियों की रचना किसी मंदिर के दीपमाला की तरह ! गुच्छेदार सुआपंखी पत्त्िायाँ !  छोटी छोटी सांवली टहनियाँ आकाश की ओर उठी हुईं। और . . . वही, वही जादूभरी रचना।
पेड के ठीक बीचो बीच से फूटी हुई जडें। जमीन को जाती हुईं। उँगलियों जितनी मोटी। यदि सारी टहनियाँ पत्तों की कंधेपर लिये आकाश को जाती हों तो जायें, पेड को संभालनेके लिये हमें जमीन की ओर ही जाना पडेगा -ऐसी समझदार ! चारों ओर से फूट फूट कर जमीन को जाती वे जडें ! हर जड को जैसे नाप-तोल कर गढा गया हो। उनके कारण वह पेड किसी भरे भरे गोकुल की तरह खिल कहा था। या, मानो पंढरी का विठोबा, दोनों हाथ कमर पर धरे अपनी सृष्टि का कौतुक देख रहा हो !
क्या यह भी गूलर जाती का पेड है ? रेखा को पेडों की इतनी पहचान तो नहीं थी।  जब 'बालकवि' ने 'औदुंबर' कविता लिखी तो क्या उनका 'औदुंबर' भी कुछ इसी तरह था - 'सांवले पानी में पैर डाल कर ध्यानस्थ बैठे बालक की तरह ?' क्या उसने भी बालकवि के मन पर इसी तरह जादू किया होगा?  लेकिन मैं कोई कवि या लेखक तो नहीं कि इसके वर्णनों के पुल बाँधूँ ! हाँ, कोई अच्छा फोटोग्राफर हो तो वह इस सौंदर्य को पकड सकता है। लेकिन इस छोटे से गांव में कहाँ से आयेगा फोटोग्राफर ? लॉज में ग्राहक आते हैं। उनके पास होते हैं कॅमेरे - लेकिन उनका ध्यान होता है केवल मंदिर के फोटो खींचने में या आदमियों के ! इस आनंदमूर्ति से उन्हें क्या मतलब ? क्या करूँ मैं तेरा ? उसने उसी पेड से पूछ डाला।
आनंद की एक तेज लहर रेखा के मन में दौड गई। किसी को तो बताऊँ इस पेड के बारे में। कोई तो होगा पारखी ! कोन करेगा मेरे साथ साझेदारी,  इस सौंदर्य बोध की ?  किसी के साथ अपना रहस्य बाँटनेके लिये रेखा अधीर हो उठी।
किसे दिखाऊँ? क्या दिनू आयेगा ? हट्, सारा दिन ग्राहक और उनके हिसाब देखने के बाद सिगारेट और टी.वी. पर दो सिनेमा - यही  टाईम पास उसके लिये काफी था। फिर शादी की, एक पत्नी ले आया - वह एक और टाईम पास !
कमल के पत्ते से जैसे पानी की बूँद फिसल जाती है - बिना उसे भिगोये - उसी तरह रात फिसल जाती है रेखा के आँचल से --- बिना कहींसे छुए।
फिर कौन ? क्या सासू जी ? हुँह, वह बूढी कैसे आएगी यहाँ? वह तो सोचती है कि कुस्मी के साथ जंगल आने से मुझपर कोई प्रेतात्मा चढ गई है। रोज ओझा बुलाने का संकेत देती रहती है। लेकिन चलो, आने पर नहीं लगाई पाबन्दी। अभी कुस्मी के बेटे की परीक्षाएँ खतम हो जाती हैं। फिर कैसे आ पाऊँगी मैं यहाँ ? लेकिन कभी कभी तो कोई बहाना ढूँढ कर आया जा सकता है।
एक गहरी, अबूझ ममता लिये रेखा उठी और नदी में उतर गई। साडी को ऊपर खींचते हुए, घुटनों तक पानी में चलकर वह उस पेड के पास पहुँची। उसकी छोटी - छोटी पत्त्िायों, नटखट टहनियों और समझदार जडों को सहलाया। उसकी निश्चयपूर्ण जीवनेच्छा से वह अभिभूत हो गई। क्या इसे ऐसेही उठाकर ले जाया जा सकता है ? कौन मदद करेगा ? लेकिन नही, ले जानेसे क्या ? कौन है जो उसके नजरिए से पेड को देख सके ?
दूर से देखा, कुस्मी उसीकी दिशा में चली आ रही थी। वह भागकर वापस नदी के किनारे पहुँच गई। वापस मुडकर व्याकुल नजर से ही पेड को देखा - जैसे गाय अपने बछडे को देखती है। 'फिर आऊँगी रे' कहकर वह मुड गई।      





ठीक तो है - कुस्मी को उसकी मनोदशा का पता नही चलना चाहिये - वरना गाँव में तुरंत बात फैल जायगी कि दिनू की बहू बौराई है।
रात में भी लॉज पर वही रोज की हडबडी। लेकिन पंगत में बैठा 'वह' कुछ अलग ही लग रहा
था। दूसरे दिन भी खाने पर भी ध्यान नहीं था उसका। जल्दी से कुछ निवाले मुँह में डालकर, हाथ धोकर वह आंगन के कोने में बिछी चटाई पर चला गया। सामने उसका कॅनवास ! उसपर सधे हाथों से रेखाएँ उतर रही थीं। पंगत में रोटी परोसते हुए भी रेखा का ध्यान उसी की तरफ था । ब्रश अपने रंगों में डूबा हुआ था। कॅनवास पर जो उतर रहा था - रेखा चौक गई। अरे, यह तो उसी के गाँव की नदी हे, और उसी नदी का पुल। फिर वह पेड? क्या उसे भी पकडा है कॅनवास में ! जानने के लिये रेखा व्याकुल हो उठी। जिज्ञासा चरम सीमा पर पहुँची। रेखा ने आंगन में दो चार चक्कर लगाये। दिनू और सास की नजरें बचाते हुए।
कॅनवास पर बार बार उतरती परछाई से चित्रकार का भी ध्यान खींचा। अच्छा भला घरेलू वातावरण है सुनकर वह इस लॉज में आया था। रात को लगा की रहने की व्यवस्था भी ठीक ठाक ही है। फिर यह महिला - महिला क्या, कोई लडकी ही मालूम पडती है - क्या देख रही है, क्या चाहिये उसे ?
उसकी नजर में उभरते प्रश्नचिन्हों से रेखा गडबडा गई। 'ये हमारे ही गाँव की नदी का चित्र बना रहे हैं ना आप ? मैंने पहचान लिया। ओ हो, कितना सुंदर चित्र है। बिलकुल ज्यों का त्यों।
' आं ? हां हां, मुझे बहुत पसंद आई वह जगह। शाम को घूमते घूमते उधर निकल गया था - तभी से मेरे मन में बस गई थी।'
रेखा ने आँख के कोर से अंदाज लिया - दिनू या सास कहीं नहीं थे। थोडी ढिटाई से पूछा - एक बात कहूँ, आप नाराज तो नहीं होंगे ?
'नही, नही, नाराज क्यों, कहिए, क्या बात है ?'
'आपका यह चित्र ना, थोडा अधूरा है। उसमें . . . '
'रेखा, दाल परोसो . . ..  '
दिनू की हांक सुनकर रेखा फुर्र से भागी.
चित्रकार ने अपना कॅनवास छोड दिया। अब यह अधूरापन जाने बिना नहीं होगी उससे कोई चित्रकारी ! वह अस्वस्थ हो चला। उसके चित्रों पर भी मत देनेवाला कोई इस छोटे से गाँव में मिल जायगा - एक सादी सी गृहिणी - उसने कभी सोचा ही न था। फिर कब मिलेगी वह, कहाँ ? वैसे काफी डरी दबी सी लग रही थी। बार बार इधर उधर देख रही थी।

रातकी पंगत और खाना हो चुकने के बाद रेखाने रसोईघर के सारे काम पूरे कर लिये। कल के लिये लोबिया भिगो दी और रातके लिये लोटेमें पानी भर रही थी कि सास ने आवाज दी -
री बहू, जरा बारह नंबर वाले मेहमान के कमरे की साफसफाई कर दे - धुली चादर, गिलास, पानी, साबुन रख दे। यहा मरा दिनू जाने कहाँ चला गया सिग्रेट फूँकने।
इस हुकुम की ताबेदारी अच्छी लगी रेखा को। झाडू उठाये वह मेहमान के कमरे में आई।
उसे देखते ही चित्रकार का चेहरा खिल गया। अधीरता से उसने पूछा - बताइये, कौन सी बात रह गई है मेरे चित्र में।
हँस पडी रेखा। सधे हाथोंसे कमरेमें झाडू फेरते हुए उसने अपने प्रिय पेड का शब्द चित्र खींच डाला।
चित्रकार आश्चर्य से अवाक्‌ हो गया। शब्द चित्र से केवल पेड ही नही, उसके साथ रेखाका भावनात्मक लगाव भी मूर्त हो उठा था। क्या उसे भी कॅनवास पर उतारा जा सकता है?
मुझे दिखायेंगी वह पेड ?
'हाँ, कल तीन साढे तीन तक तैयार रहिये। देर न हो। वरना अंधेरे में कैसे देख पायेंगे उसकी सुंदरता ?'  कल कोई उसके रहस्य में शामिल हो सकेगा, यही सोचकर रेखा के पाँव नृत्यमय हो गये। जल्दी से उसका बिछाना तैयार कर वह अपने कमरे में भाग आई।
वह आत्ममग्नता का भाव चित्रकारके मन में गहराई तक उतर गया।
नई सुबह रेखा के लिये एक अनोखी खुशी लेकर आई। आज वह अपना प्रिय पेड किसी पारखी की





नजरों को सौंप सकेगी। उसके सारे काम आज जल्दी जल्दी पूरे हो रहे थे। वही चावल की हाँडी, वही रोटियोंका ढेर, पर आज उसे जरा भी नही थका पाये। पंगत उठी, खाना खाकर दिनू हिसाब लिखने बैठा और सास सोने चली गई।
आज कुस्मी के द्वार पर रेखा के साथ साथ कंधे पर शबनम बॅग लिये चित्रकार भी था । कुस्मी थोडा अचकचाई।
ये मेहमान कौन है आज अपने साथ? मैं मुंबई के कालेजमें चित्रकारी सिखाता हूँ। आपके गाँव में देवता के दर्शन करने आया था। इनके लाज पर ठहरा हूँ - उसीने उत्तर दिया।
कुस्मी ने मन में सोचा - भौजी की सास ने भली अनुमति दे दी इसे मेहमान के साथ घूमने फिरने की ! मरें दोनों, मुझे क्या ?
मौन, तीनों चल रहे थे। नदी का पुल आते ही रेखा सबसे आगे हो गई। सीढीयाँ उतरने लगी। कुस्मी आदत के अनुसार लकडियाँ तोडने सामने झाडियों में घुस गई।
रेखा अंतिम सीढी तक उतर गई। बगल में पहुँचे चित्रकार का एहसास हुआ तो मौन ही उसने अंगुली निर्देश कर दिया अपने पेड की ओर। उसकी आँखोमें आनंद अब झिलमिलाते मोतियोंका रूप ले चुका था।
अबतक चित्रकार एकटक उसके चेहेरे के मनोभावों को ही पढ रहा था।  वहाँ से नजर हटाकर उसने अंगुली की दिशा में देखा। और ठगा सा रह गया।
प्रकृति से इतना कोमल, सुंदर साक्षात्कार ! विजिगिषु वृत्ती ये खडा वह पेड मानों सारे चराचर को  ललकार रहा था।
'मार्व्हलस्‌, व्हेरी ब्युटीफुल !' जितने कोणोंसे पेड देखा जा सकता था, देख लेने के बाद चित्रकार ने अपनी शबनम बॅग कंधेसे उतार कर सीढीयों पर रखी। पँट के पायंचे मोड कर ऊपर कर लिये, और चप्पल उतार पानी में उतर पडा।
रेखा भरपूर नजर से उसे देखती रही।  पेड के पास पहुँचकर उसने पत्तों को अपने हाथों की अंजुरियों में भर लिया। टहनियाँ और जडे सहलाईं। उन्हें सूँधा । देर कर उनपर हाथ फेर लेने के बाद वापस आया। 'सच, क्या ही सुंदर और कितनी प्रतिकूल परिस्थितियों में दृढतासे खडा है यह पेड !'
'मुझे तो यह कमर पर हाथ धेर विठोबा जैसा लगता है।' सीढीयों पर बैठते हुए रेखा ने कहा।
वह भी थोडी दूरी रख कर बैठ गया। 'और मुझे लगा जैसे ड्राइंग हाल में टी पॉय पर किसीने ये टहनियाँ रख दी हो।'
'ओ, कितनी अलग कल्पना है, हम लोग इस प्रकार कल्पनाओंकी अंताक्षरी भी खेल सकते हैं।' रेखा खिलखिला कर हँस पडी। हँसी पूरी तरह उसकी देह भाषा में प्रतिबिंबित हो रही थी। पेड के साथ निश्चय ही उसका रिश्ता वैसा ही हो गया था जैसा किसीका अपने बिल्कुल सगे के साथ होता हो। उस हँसी का प्रतिबिंब शतगुणित होकर उसके चेहेरे पर भी उतर आया।
चित्रकार ने अपनी स्केच बुक सामने खींची और तन्मय होकर पेड को कागज पर उतारने लगा। कलका अधूरापन पूरा करना था। रेखा ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया । चित्र पूरा हुआ और दोनों फिर एक बार स्तब्ध हो गये। एक दूसरे की भाव समाधी को तोडने की पहल कोई नहीं कर सकता था।
दूर से कुस्मी ने उन्हें वैसा बैठा देखा और एक कीडा रेंगता हुआ उसके दिमाग में सरसराने लगा।
'एक घरेलू औरत का पराये पुरुष के साथ इस तरह बैठना, हँसना ठीक लक्षण नहीं है।' वह पुटपुटाई।
कुस्मी पास आई तो रेखाने उससे कहा - 'तुम चलो, मैं पीछे से आ ही रही हूँ इनके साथ।'
'पर तुम्हारी सासू ?'
'हाँ री, बस आ ही रही हूँ मैं ! चलो तुम !'
मुझे क्या लेना है?' कह कर कुस्मी आगे निकल गई।
उसकी तरफ देखकर रेखा को हँसी छूटी। आज सुबह से उसे बार बार हँसी छूट रही थी। एक नजर चित्रपर डाल कर उसने कहा - कितना हू बहू चित्र बनाया है आपने !
'पसंद आया?'






'बहुत !'
चित्रकार ने थोडा सा आगे झुककर चित्र को उसके सामने किया -
'मेरी तरफ से आपकी पारखी नजर को स्नेहपूर्वक भेंट !'
'ओः! मुझे क्यों? रेखा अपना हर्ष छुपा नहीं सकी।
'आपने भी तो मुझे इतनी अच्छी भेंट दी ! और चित्र का क्या ? वह तो मैं कभी भी बना लूँगा।
'धन्यवाद! सच, मैं बहुत कृतज्ञ हूँ।' रेखाने चित्र हृदयसे चिपका लिया, और एक अनाम भावना से उसने चित्रकार की चरणधूली ले ली।
क्षणभर चित्रकार भी अवाक्‌ रहा। फिर पत्त्िायों के रंगकी किनकिनाती हरी चूडियाँ देखकर उसे कुछ बोध हुआ । उसके सर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए बोला - 'ऐसी ही पारखी नजर जिंदगी भर टिकाये रखना, यही मेरा आशीर्वाद है।
एक अबोध संतोष में भरकर दोनों घरकी राह चलने लगे। रेखा चहचहाती रही, हँसती रही ।
आँगन में पहुँचते ही सारा परिवेश बदल गया। कुस्मी सास के पास खडी थी और उनकी आँखोंसे अंगारे बरस रहे थे। दिनू दरवाजे की चौखट पर लदा हुआ था। खींचे हुए होंठ! माथे की नसें तनी हुई।
रेखा काठ हो गई। भय से पीली पड गई। फिर भी थोडा साहस संजोकर बिनती के सुर में दिनू से कहा - 'देखा ! कितना सुंदर चित्र ? मैं . . .  '
नालायक, बेशरम ! ये ही धंधे करने थे? दिनू की सनसनाती झापड उसके गाल पर पडी।
    दिनू बेटे, पहुँचा दो मैके इस कुलटा को। भली देखकर ले आये थे। लेकिन भोजन गृह में यही धंदा होता रहा तो एक दिन बंद हो जायेगी हमारी कुलीन मेस !
टर्र से फाड डाला दिनू ने उसके हाथका चित्र !
चित्रकार को लगा उसे कुछ कहना चाहिये। लेकिन तभी दिनू उसके पास पहुँचकर चिल्लाया - ओ मेहमान, चलो उठाओ अपना सामान और चलते बनो ! यह सभ्य लोगोंकी मेस है। मुंबै नही है। क्या समझे? यहाँ की बहू बेटियाँ बाजार में नहीं बैठाई हमने !
लेकिन मिस्टर, सुनिये तो . . . , चित्रकार नरमाई के सुरमें बोला !
'कुछ भी मत बोलिये ! सारे गाँव में हमारे मुँह छिपाने की जगह नही रखी आपने।' सास गरजी।
दिनू का गुस्सा और भी बढ गया। वापस रेखा की मुडकर धप्प से उसकी बाँह पकड कर झटका दिया।
रेखा लडखडा कर गिर पडी। दिनू जहाँ जहाँ हाथ - पाँव चला सका, उसे मारने लगा। रेखा के नवेली हरी चूडियाँ चूर चूर हो गई। आँख में असहायता के आँसू झलके, लेकिन मुँह से कोई भी आवाज नहीं निकलने दी उसने। उस हालत में भी आँखके कोने से चित्रकारको देख ही लिया। उसके चेहरे पर भी एक हताशा का ही भाव था।
अपना सामान लेकर चित्रकार चलने लगा तो दिनू ने उसका रास्ता रोक लिया - दो दिन के रहने खाने के सौ रुपये चुकते करो, फिर जाना कहीं भी अपना मुँह काला करने।
अपमानित चेहरे से चित्रकार ने सौ की एक नोट निकालकर दिनू की ओर बढाई और पाठ फेर ली । फिर भी दो आँसू उसके गालोंपर ढुलक ही गये। दिनू ने नहीं देखा क्यों कि वह नोट के असली नकली होने की  जाँचमें लगा हुआ था। लेकिन वे आँसू रेखा की नजर से उसके मन की गहराई तक उतर गये । रुलाई से उसका शरीर गदगदाने लगा।
उठिये रानी जी ! रोते कलपते बैठनेसे रात की पंगत कैसे भोजन करेगी। रोटी कौन बेलेगा? तुम्हारा बाप ?
दिनू ने बालों से पकड कर उसे खडा किया और चूल्हे की ओर ढकेलते हुए गुर्राया - आज से तूने आंगन में भी कदम रखा तो टांगे तोड कर रख दूँगा।
धमकाते हुए दिनू बाहर निकल गया सिगरेट जलाने।
सूजी हुई आँखोंसे रेखा ने चूल्हा जलाया और दुखते हाथोंसे रोटियाँ बेलने लगी । दुख, दर्द और अपमान मन में नहीं समा रहे थे। जलती लकडी को छूकर उसने प्रतिज्ञा की - दुबारा कभी भी उस पेड की





बात नहीं सोचूँगी। कभ्भी, कभ्भी नहीं।
रात हुई। सारे काम खतम कर भूखे पेट ही रेखा सोने आई। आँखे अब भी आँसुओं को रुकने के लिये नही कह रही थी। कल से वह नदी, वह पूल और उसका लाडला पेड, सब कुछ दूर हो जाने वाले थे। मार से भी ज्यादा इस वियोग का दुख उसे सालने लगा। आखिर वह अपने ससुराल में थी। मैके से सारी जडें उखाड कर आई थीं। इसी जमीन में उसे गड जाना होगा। नई जडें फूटेंगी तो यहीं से फूटेंगी।
रो रोकर आखिर थक गई। क्रोध के मारे दिनू ने अपना बिछाना आज बाहर आंगन में लगा लिया था। चलो, यह भी एक अच्छा ही हुआ। दर्द में भी रेखा को थोडी राहत मिली। पेड को मन से निकाल देनेकी प्रतिज्ञा को मनोयोग से आत्मसात करने का एकांत मिला। लेकिन पेड का लगाव जो पहले ही उसके रक्त माँस तक पहुँच चुका है, रेख़ा उसे कैसे हटाये ?
पेड से न मिला पाने के विचार से वह घायल हरिणी की तरह छटपटा रही थी। दिनू के पाशवी प्रहारोंसे अधिक दर्द इस प्रतिज्ञा से हो रहा था। उसी थकान में उसे नींद आ गई।
सुबह हुई। कमरे की दिवारें दिखें इतना उजाला फैला तो रेखाने बिस्तर समेटा। बिखरे बालों को कसकर जूडा लपेट लिया। कलाई पर अभी भी काँच की चूडियोंसे बने जखम गीले थे।
हाथ-मुँह धोकर वह रसोईघर में आई। पहले रोटियोंके लिये आटा गूँथ लिया। फिर चूल्हा जलाया।
लकडियाँ फिर एक बार सरसराकर जलने लगीं। लपटें लाहालाहा करती हुई ऊपर तक उठती चलीं। तवा लपटों से घिर गया। इधर रेखा का हाथ भी जल्दी जल्दी रोटियाँ बेलने के लिये घूमने लगा।
रसोई के दरवाजे से दिनू एकटक उसे देख रहा था। कल मार खाकर आज आ गई लाईन पर। अब हिंमत नहीं करेगी किसी के साथ रास रचाने। ह्याः! लेकिन कल रात खामखाही में आंगन में सोना पडा। बिलाव की तरह दबे पाँव दिनू उसकी ओर बढा और पीछे से लपेट कर उसे दबोच लिया।
इस आकस्मिक झटकेसे रेखा घबराई। सहारे के लिये आगे बढा उसका हाथ जलती लकडी को छू गया। उंगलियाँ जली तो हाथ आपने आप पीछे आ गया। आँखों में फिर से आँसूओंकी बाढ आ गई। डबडबाई आँखों के पीछे चूल्हे की लपटें ऐसी ही दिख रहीं थी जैसे अपनी जडों में लिपटा हुआ उसका पेड। जलती उंगलियों ने फिर से जताया कि आग की इन लपटों के साथ ही अब तेरा नाता है।
दिनू की देह के नीचे मसले जाते हुए उसकी अधमुँदी आँखोंने महसूस किया - यहीं है वह पेड, और मैं उसकी हूँ - नहीं, वह मैं ही हूँ। अभी अभी उसकी ऊपर जानेवाली टहनियाँ शुष्क, कठोर बन गई हैं और उन्होंने आग की तपिश को पकडकर उंगलियोंके माध्यम से पहुँचा दिया है - शरीर के भीतर - रक्त में खिलने के लिये.....
और जिन्दगी का शाप भोगने के लिये। वह पेड, अब इसी तरह अपना आधा शरीर पानी के बाहर रखकर शुष्कता से जीने वाला था। और आधा शरीर पानी के अंदर सृजन की जडें फैलाते हुए गहरे, और गहरे घँसनेवाला था।
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लेखिका -- वैशाली पंडित, मराठी प्रकाशन - अंतर्नाद मासिक पत्रिका, पुणे      
अनुवाद -- लीना मेहेंदले
पता : ई १८, बापू धाम, सेंट मार्टिन मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली, ११००२१

हिसाब hisab – जी.ए. कुळकर्णी

हिसाब hisab – जी.ए. कुळकर्णी

हिसाब

लेखक - जी.ए.कुलकर्णी
प्रकाशन - मराठवाडा मासिक
कालखंड - १९४० - ५०
अनुवाद - लीना मेहेंदले

     स्कूल से छुट्टी होते ही घर जाने के लिए सबसे छोटा रास्ता है मारुती के मंदिर वाला। बरसों  पहले म्युनिसिपालिटी ने कुछ रास्तों पर कांक्रीट बिछाई थी, उन्हीं में से एक यह भी है। लेकिन आजकल उस रास्ते जल्दी- जल्दी घर पहुँचने का आनंद कहीं गुम हो गया है। जैसे ही माधव घर पहुँच कर अपना बस्ता उतारता है, उसकी नजर टेबुल पर रख्खी दवाई की शीशी पर टिक जाती है। जब तक वह चाय पी ले, माँ शीशी लेकर पीछे खड़ी हो जाती है। नमक-मिर्च-तेल लगा चिऊडा कागज की एक पोटली में रख  उसकी जेब में ठूँसती है, और दूसरे हाथ से उसे शीशी पकडा देती है -'भाग कर जा, वरना डॉक्टर निकल जायेंगें।' और फिर उसी रास्ते से वापस आना है।
     दवाखाने में डॉक्टर छह बजे तक बैठते हैं। तब तक नहीं पहुँचो तो दूर बाजार वाले दवाखाने जाना पडता है। इसलिये रास्ते में ही चिऊडा फाँकते हुए चलना पडेगा। लेकिन बारामदे की मुंडेर पर बैठ कर खाने का मजा इसमें कहाँ। स्कूल की छुट्टी के बाद दिनभर धूप में तपी मुंडेर की फर्श पर पिछले तीन चार महिने में एक बार भी नहीं बैठ पाया है माधव !
     मारुती मंदिर के पास माधव आया।  वहीं दामले की दुकान थी। माधव पास से गुजरा तो दामले ने उसे आवाज दी। 'अरे, सामान ले जाते हुए तू हट्टा कट्टा होता है, और पैसे क्या तेरा बाप देगा?'
     माधव को ग्लानि हुई। सर झुकाए ही उसने कहा -' आबा तो बीमार ही चल रहें हैं, माँ से पूछ कर बताता हूँ।' दामले उतर कर नीचे गया। उसकी बडी बडी गलमूँछें थीं। और वह दारुबाज भी था ये तो सभी जानते थे - उसकी औरत ही सबको बताती थी। वह बोला - 'क्या खेल चला रखा है। कल सुबह नौ बजे तक पैसे दे देना। वरना इस रास्ते पर आया, तो टाँग तोड कर रख दूँगा।' फिर उसने खींचकर एक झापड माधव के मुँह पर मारा। माधव का बस्ता नीचे गिर गया और गाल जलने लगा। किसी तरह बस्ता उठाकर भीगी आँखों  से वह घर पहुँचा माँ राह देख रही थी। लेकिन उसका चेहरा देखकर चौंक गई। पूछा, क्या हुआ रे ?
     सारी बात सुनकर वह दो क्षण स्तब्ध रही। फिर उसने माधव के सामने चाय के साथ चिऊडा भी रखा। बोली - आज दवाखाना रहने दो। डॉक्टर आये थे, थोडी देर पहले। कल से दवाई बदल कर देने वाले हैं। मैं जरा बाहर से आती हूँ। तब तक तुम चिऊडा लेकर मुँडेर पर बैठना।
     फिर वह रसोईघर के बडे डिब्बों में हाथ डाल कर कुछ ढूँढनें लगी। एक डिब्बे से उसने बंद मुट्ठी निकाली और बाहर जाते हुए कहा - 'यहीं गाडगिलों के घर से आती हूँ।'
     माधव ने सामने पडे चाय-चिऊडे को देखा। कितने दिनों से वह मुँडेर पर बैठ नहीं पाया था। लेकिन आज जैसे भूख कहीं मर गई हो। खाली हाथ ही वह बाहर आकर बैठ गया। सामने ही गाडगिलों का घर था। उनके बडे आंगन में फूल फूल की डिजाइन वाले लकडी के बडे झूले लगे थे और उनकी  कुर्सियों पर भी नरम मुलायम गद्दे लगे हुए थे।
     थोडी देर में माँ वापस आई। चाय चिऊडा वैसा ही पडा देखकर उसने माधव को भरपूर नजर से देखा। लेकिन बोली कुछ नहीं। प्लेट से चाय के कप को ढँकते हुए बोली 'आबा अंदर सो रहे हैं। मुझे जरा मारुती मंदिर जाना है।'
     बाहर आकर उसने दरवाजे को कुंडी लगाई और माधव से बोली - तू भी चल मेरे साथ। उसके पैरों की तरफ देखते हुए माधव बोला - तुम्हारे पाँव की बिछिया तो रह गई।
     माँ कभी भी पाँव की उँगलियों में बिछिया पहने बगैर बाहर नही जाती थी। उसके साथ चलते हुए रास्ते की कांक्रीट पर बिछिया की खटखट सुनना माधव को अच्छा लगता था माँ ने फिर दरवाजे की कुंडी खोली, कोने में बने पूजाघर में रखी बिछिया पाँव की उंगलियों में पहनी और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोली - अब चलो।




     माँ दामले की दुकान पर आई। दामले नीचे झुककर साबुन का बक्सा खोल रहा था। माँ दुकान की सीढी चढी तो वह बक्सा छोडकर खडा हो गया। माँ तख्ती पर खडी थी फिर भी दामले उसके इतना ऊँचा दिखा रहा था।
     'दामले, तुम्हारे कितने पैसे देने हैं ?' माँ ने शांत स्वर में पूछा। 'पैसे देने में एक महीना और लगेगा, यह मैंने तुम्हे पिछले शनिवार को बताया था - और तुमने उसके लिए हाँ कहा था।'
     'कहा था तो क्या हुआ ? आदमी थोड़ा सा क्या झुका कि तुम उसे पूरा घेरने लगी।' दामले ने कहा - तुम्हारा बकाया है नब्बे रुपये। माँ ने नोटें निकालीं और एक बार गिन कर दामले को थमाईं। उसने गुर्राते हुए कहा - 'हिसाब चुकता हुआ। अब आगे से उधार नहीं मिलेगा।'
     'सारा हिसाब अभी नहीं चुका है।' माँ ने शांती से कहा - उसका हाथ तलवार की तरह उठा और एक भरपूर झापड दामले के गाल पर पडा। दामले विमूढ देखता ही रहा। रास्ते पर दो औरतें शाल लपेट कर मारुती मंदिर जा रहीं थीं, वे वहीं रुक गई। एक आदमी साईकिल से जा रहा था, वह भी उतर गया। राधाक्का के चीनी की पुडिया पर डोरी लपेटता हुआ सखाराम का हाथ रुक गया।
     'तूने एक चाँटा इसे मारा था ना? उसका हिसाब अब चुकता हुआ।' माँ ने बिजली सी कडकती आवाज में कहा। 'और एक बात और भी ध्यान में रखना। फिर कभी बच्चे के देह को उंगली भी छुआई, तो यहाँ मारुती के आंगन में ही तेरी लाश बिछा दूँगी।'
     उसी शांत भाव से माँ सीढ़ीयों से उतरी और माधव के कंधे पर हाथ रखकर उसे ढकेलते हुए चलने लगी। 'अब घर चल कर तेरी चाय गरम करती हूँ। फिर मुँडेर पर बैठकर चिऊडा खाना।'
     इसे पूरे अन्तराल को मनःचक्षुओं से बार बार देखकर माधव खुश होता रहा। माँ की बिछिया सड़क की कांक्रीट पर टक - टक बजती रही। उसका रौब माधव के नस - नस में उतरता गया।
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