सोमवार, 9 नवंबर 2009

लिपी

लिपी
ले. मधुकर धर्मापुरीकर
अनुवाद लीना मेहेंदले
कथादेश, हंस
लिपी
नखरे और लय भरी रेखाओं से एक एक अक्षर उभरने लगा। शब्द आगे आए । एक एक मोड के चढाव - उतार से गुजरती हुई लिपी ने शब्दों की भाव छटा दिखाई। जपानीं कला में कागज को निसमबध्द मोड देकर उससे फूल उभारा जाता है। कुछ उसी तरह यह लिपी मुडी, चटी, उतरी और एक शेर उभर आया-

जोश’ अब तो शबाब की बातें
ऐसा लगता है जैसे अफवा हो। 

शब्द- शब्द से प्रकार हुए अर्थ ने अपना जादू जमाया और आशय की भवानुभूती में उसे भींगोकर लिपी दूर हट गई। वह थरी गया। सुबह की ठंडक में उसपर गर्मी छा गई । बदन पर लोपटी हुई शाल फिसल कर नीचे आगिरी। उसके मुँह से आनायाल निकली- वाह। वाह री ऊर्दू- लिपी।

यों देवनागरी लिपी की किताबों में बसे शेर उसने कई - बार पढे थे। और तभी से उसके मन ने ऊर्दू शायरी को दाद दी थी वाह। शायरी लाजबाब है। लेकिन इधर - उस पर शौक चढा था ऊर्दू लिपी- पढने का। अक्षर -अक्षर मिलाकर पढना और वह भी -उस लिपी के तमाम नजाकत से भरपूर


मोडों और बिन्दियों से गुजरते हुए। यह देवनागरी की तरह सीधी सरल नही- बल्कि नटखट , उछलकूद से भरपूर लिपी थी। एक एक अक्षर मिलाकर , कई जगह अटक कर सात आठ मिनट में जो एक शेर पढा जा सकता था - उसका जादू कुछ और भी गहरा जाता था।
और तब यदिं कोई ऐसा शेंर मिल जाय जैसा यह जोश साहब का था - तो फिर उस दीवानगरी का क्या कहना। मानों किसी पडदानशी के आकर गलबईयाँ डाल दी हों। वाह !

बहुत दिनों के बाद यह ऊर्दू शेर की किताब उसके हाथ लगी थी। पिछले दो दिनों से यही सिलसिला शुरु हो गया था। वह एक एक अक्षर जुटाता और फिर शेंर धीमे धीमे ऐसे उभारता था जैसे दीवाली पर कोई फुलझडी - दाएँ से बाएँ धीमे धीमें रोशनी के फूल बिखेरती - चली जा रही हो। कॉलेज के दिनों में बडे शौक से सीखी यह - लिपी आज अचानक ही सामने आ गई थी। वरना तो शादी , घरबार , नोकरी की भागदौड में उससे मिलना कहाँ हो पाता था। जोश साहब की तरह वह भी उन दिनों से इतना दूर आ गया था कि अब वे दिन , वह उमंग , वह शर्तिया सीखी हुई लिपी सब अफसाना ही तो बन कर रह गए थे। अब यह ऊर्दू लिपी ऐसे मिलती है - जैसे उन दिनों की कोई क्लासमेट जिस गगपर दिल आ गया हो। वह अचानक बाजार में मिल जाय। हँसकर हालचाल का पता और चल दे। या फिर पूछ ले कि भाभी कैसी है- और इस प्रकार आकाश से धरातल पर पटके।



(अगले पन्ने गायब.......)
तुमने जिलानी को दे दिया अप्लीकेशन? उसमे थोड़ा सा चिढ़कर ही पूछ लिया। हाँ वह बोला - दे दो बाई, मैं जानेवाला हूँ, उस तरफ दे दूँगा तुम्हारी प्रिंसिपल को। वह जाता रहता है उधर, मुझे मालूम है। 'कैसी मूरख हो तुम?' वह करीब-करीब चिल्ला पड़ा।

क्यों क्या हो गया? वाइफ का चेहरा फीका पड़ गया। वह भला आदमी है। 'नही है।' उसका चिल्लाना अब भी कम नही हुआ था।' कोई भी औचित्य का ज्ञान नही हैं तुम्हें। एक सब्जी बेचने वाला स्कूल में जाये, कैसा नजारा है।'

वाइफ समझ नही पाई। दिन के रुटीन कामों में क्या नजारा और क्या नजरिया? नहा-धो कर, बिंदी लगाकर खिला-खिला उसका चेहरा मुरझाने लगा। वह बोली - ' छोड़ो मैं स्कूल ही चली जाती हूँ।
रजाई फैंक कर वह बिस्तर से नीचे उतर आया।
'नही, स्कूल मत जाना'।
अब क्या करना है, यह प्रश्न खड़ा हो गया। आलस भरे उसके मन पर बेचैनी आ गई। वाइफ ने फिर से चप्पलें पहन सी थी, कहाँ जाती हो?
लेकिन तब तक वह निकल चुकी थी। हताश होकर वह पलंग पर बैठ गया। सच, इसे कभी मेरा नजरिया नही समझ आयेगा। अरे, जरा सोचो, वह जिलानी स्कूल जायेगा। एक ढीला सा पायजामा पहने, जिसका नाडा शायद लटक रहा हो, कुर्ते पर जाकेट और वह उसकी ----- टोपी। पहले सब्जी मंडी जायगा फिर स्कूल - उसकी कोहनी में कपड़ों पर मिट्टी के धब्बे लगें होंगे। उसकी नजरों के सामने एक दृश्य तैरने लगा। सिर पर से सब्जी की टोकरी नीचे उतार कर जिलानी - प्रिंसिपल को पुकारेगा - मैडम, फिर टोपी के नीचे से अर्जी निकाल कर कहेगा - यह पूज्य बाई का अप्लीकेशन है - दरख्वास्त - छीः । यह कोई तरीका है लीव-अप्लीकेशन देने का। उसने अपना सर खुजलाया। दुबारा रजाई ओढ़कर, किताब लेकर बैठ गया। लेकिन शेर का नशा अब नही चढ़ सकता था। तभी वाइफ अंदर आई। चप्पलें उतारती हुई बोली - जाकर ले लिया वापस जिलानी से अपना अप्लीकेशन। बहुत अच्छा किया। क्या कहा उसने? खुश होते हुए उसना न किये को ठीक कर लिया। कुछ नही कहा। वहाँ गई तो काबरा मैड़म वहीं खड़ी थी। सिधी बस नही मिली तो ऑटो से जा रही थी। मैनें अर्जी जिलाने से ले ली और झट से उनके हाथ में दे दी। अब प्रेयर असेम्बली से पहले प्रिंसिपल के पास पहुँच जायगी। जिलानी के पास रहता तो दस बजें ही पहुँच पाती।
वाइफ के शब्दों में उत्साह था। अर्जी के देर से भेजने का टेन्शन सर से उतर गया था।
वह हंस पड़ा। चेहरे की शिकन और कपाल पर पड़ी सिलवटें छिटक कर मुसकान में बदल गई। वाइफ की बिंदी में वह उर्दू लिपी के नुकसे ढूंढने लगा।
फिर एक झटके में उछकर बैठते हुए उसने किताब का पन्ना खोला। वहाँ मेहंदी जैसी नक्काशी में शैर था। हर शैर को सवारा मैनें, वो मेरी जुल्फ की खता रह गई। वाह ! फिर से चिल्ला कर उसने पूछा - सुनो, उब बच्चे चार बजे तक तो स्कूल से नही लौटेंगे ना?
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बुधवार, 16 सितंबर 2009

अकेला

अकेला

धुंध और धुंध | चारों तरफ से धिरता हुआ कुहासा | वेदनामयी ठंडक | और उसके अधिक तीखा अकेलेपन का एहसास | पर आज यह अकेलापन उसे सालता नहीं |

उसके सारे साथी पीछे छूट गये है | कोई सीने पर गोली खाकर, कोई बुरी तरह जख्मी होकर | उसकी चौकी के कितने सिपाही बचे होंगे इस भीषण गोलाबारी में? काश, वह जान सकता | लेकिन उसे खुशी है कि अपने पद की जिम्मेदारी उसने निभाई है | दुश्मन का पीछा करते हुए वह इतनी दूर निकल आया और बुरी तरह जख्मी भी हुआ | पर दुश्मन का एक भी सिपाही बचकर नहीं जा सका | वह अकेला है ते क्या हुआ | उसके सिपाही तो सुरक्षित रहे, उसकी चौकी तो अजेय रही |

चारों ओर बर्फीली वादियाँ फैली है | सिर उठाकर इन चोटियों से स्पर्धा करते देवदार और चीड़ के ये जंगल | एक अद्भुत गहरी नीलिमा ने अपनी चादर फैलाकर चाँद की मद्घिम रोशनी की और फीका कर दिया है | भीर के आने में देर है | लेकिन वह आयेगी और सारे रंग उजियाले में धुल जायेंगे | पास कहीं किसी झरने के बहने की आवाज आ रही है | क्या वह कोशिक करे - घिसट घिसटकर वहाँ तक पहुँचने की? उसके सहारे अपनी चौकी खोजने की? पर नहीं | जख्मों से इतना खून बहा है कि उसमें अपनी जगह से हिलने की भी शक्ति नहीं है| मन पर से वह बोझ उतरा है कि उसे कुछ और करना, कुछ और सोचना-अच्छा नहीं लगता है | ठंड से उसके सारे अवयव अकड गये हैं | शायद दांत भी बज रहे हो | जांघ में घुसी गोली का घाव बुरी तरह दर्द कर रहा है फिर भी उसे न सर्दी का एहसास है और न दर्द का | उसे अपना बचपन याद आ रहा है |

वह अपने घर का अकेला लडका है | मम्मी-डॅडी का दुलारा | पर यह दुलार उसके भाग्य में कहॉ? डेडी की आफिस से, मम्मी को क्लब से और दानों की अपनी पार्टियों से शायद ही कभी फुर्सत मिलती हो | इतने बड़े घर के छोटे सर्वेंट हाउस में संजीव रहता है | हर शाम उसकी माँ उसकी छोटी बहन को नये कपड़े पहनाकर, आँखों में काजल डालकर सजाती है | उसे बड़ी जिम्मेदारी के साथ संजीव पार्क में घुमाने ले जाता है | संजीव भी तो उसी की उम्र का है, आठ नौ साल का | लेकिन इस काम को करते समय शान से गर्दन इतनी उँची उठाता है मानों बीस पचीस साल का हो | एक बार पार्क में उसने भी छोटी को घुमाना चाहा तो संजीव ने साफ कह दिया था, तुमसे गिर जायेगी | तब उसे कितना गुस्सा आया था |

दुसरे घर में युगल जोड़ी है मुन्ना और राजू की | जब मुन्ना पतंग की ढील देता है राजू जल्दी-जल्दी मॉझा खोजता है | दूसरी पतंग यह जा, वह जा और कटी | अपने छत से यह सब देखते हुए वह दिल मसोस कर रह जाता है |

धीरे- धीरे वह समझ रहा है कि मम्मी-डेडी से कुछ कहना बेकार है | पहले-वहले वह जिद करता कि उसे भी भाई या बहन चाहिये | कभी- कभी चीखकर घर को सिर पर भी उठा लेता | लेकिन मम्मी-डेडी नाराजगी से एक बार उसे और एक बार एक दूसरे को देखकर अपने- अपने कमरों में चले जाते | बाद में नौकरों की चुपके-चुपके आपस में खुसुर- पुसुर करते देख अब उसने शिकयत करना छोड़ दिया है | यह तो उसकी समझ में बहुत बाद में आया कि मम्मी-डेडी की आपस में बनती नहीं है, मिलाप का वह मुखौटा केवल पार्टियों के लिये है |

उस दिन को वह भूल नहीं सकता जब से होस्टल भेजा गया | क्लासेस नये-नये खुले थे | कई नये लड़के आये थे | दोस्ती करने-कराने के दौरान किसी ने उससे कह दिया था यार बड़े भाग्यशाली हो, तुम्हारा हिस्सा बँटाने वाला कोई नहीं है | वह कैसे समझाता कि वह सब कुछ बॉटने को तैयार है यदि कोई उसका अकेलापन बाँट ले |

वह तड़प और गुस्सा रास्ते के पत्थरों पर उतारता हुआ जब वह घर पहुँचा तो आया और नौकर गायब थे | बगल में कहीं एक मजदूर औरत को साँप ने काटा था उसे देखने चले गये थे | उसका खाना रसोई में ढककर रखा था |मम्मी ने कभी उसके साथ खाना खाया हो यह तो उसे याद नहीं पर आया भी साथ न हो इससे बड़ा अन्याय क्या होगा? गुस्से में उसने गिलास उठाकर पटक दिया | फिर तश्तरी की बारी आई | फिर तमाम कटोरियाँ क्रिकेट - बाल की तरह उछलने लगी | और तभी मम्मी के सिर दर्द के कारण पार्टी का मूड उखड़ जाने से नाराज डेडी घर में दाखिल हो रहे थे | उस मार का उसे दुख नहीं है लेकिन आया को निकाले जाने का और उसके होस्टल भेजे जाने का उसे दुख है | होस्टल मन भाने पर भी अकेलेपन की कसक उसके मन में रह गई |

वह कसक दुबारा उठी थी पाकिस्तानी हमले के समय| उन दिनों रेडियो पर लगातार कच्छ के मैदान में पाकिस्तानी आक्रमण के समाचार आ रहे थे | देश भर में आक्रमण कारी के प्रति आक्रोश और क्रोध की लहर दौड़ गई थी| साथ ही इस बार किसी कीमत पर न हारने का दृढ़ संकल्प था | उसके कितने ही साथी सेना में भर्ती हो रहे थे | जब उसने डेडी से अपने भर्ती होने की इच्छा बताई तो उन्होंने बेहद ठंडे और अधिकार भरे स्वर में कहा था, नहीं | उसे अनुमति नहीं मिल सकती क्योंकि वह उनका अकेला लड़का है | तब न तो वह डेडी को देश की दुहाई दे पाया और न उस स्वर के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त कर पाया | एक ही शब्द बार-बार उसके कान में गूंजता रहा, अकेला, अकेला |

अपनी जिद से सेना में भर्ती हो जाने पर उसे लगा था मानों उसे एक नई दुनियाँ मिल गई हो | देश के किस किस कोने मे, किन-किन हालतों में जवान भर्ती हुए थे | सबके बीच अपनी अलमस्ती से, अपनी हर वक्त हँसी मजाक की आदत से, उसने जगह बना ली थी | कितने दिनों से वह इस चौकी पर था लेकिन उसके ठहाकों ने चौकी के एक भी जवान को अकेलापन महसूस नहीं होने दिया | फिर भी उसके अन्दर का अकेलापन नहीं मिट सका था, आज तक, कुछ देर पहले तक |

और अब? उसे हँसी आ रही है| कैसा वह बुद्घू था जो आजतक अपने साथी को पहचान नहीं सका | यह हिमालय| युग-युग से इसी अकेलेपन को अपने आप में समेटे खड़ा है | इन झरनों ने और बर्फीली हवाओं ले कितने वर्षो की कहानियाँ उसकी छ़ाती पर लिख डाली | पेड़ो ने कितने वर्षो तक उसका नमन किया | पर सबके बीच सबसे अलग एक शांत योगी के समान वह मूक दर्शक खड़ा है | एक साथी की प्रतीक्षा में | ठीक उसी तरह | उसे लगा मानों हिमालय की खोज आज पूरी हुई हो | कैसी यह अजीब दोस्ती है | हिमालय उसके देश का प्रहरी और वह हिमालय का प्रहरी। अपनी विशाल गोद में इस नये साथी को छिपाये हिमालय मानों विहँस रहा है | उसका आनंद उष्णता बनकर झलक रहा है | उसे धीरे-धीरे इस उष्णता का अनुभव हो रहा है| अब यह पलकें कभी नहीं खुलें, उसे उसकी परवाह नहीं|
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अनुवाद---- श्रीमती लीना मेहेंदले
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बुधवार, 21 जनवरी 2009

षौक -- पूर्ण

नाझ्या एक शहर मेले त्याची गोष्ट या कथासंग्रहातून
अनुवादित कथा
प्रथम प्रकाशन अंतर्नाद मासिक, पुणे ...... 2007
मूळ- हिंदी, लेखक - अवधेश प्रीत, अलाहाबाद -- नया ज्ञानोदय, दिल्ली .....

षौक

चौधरींची जातच तशी ! षौकीन मिजाज ! काय एकेक षोक ! मनात आला म्हणजे आला ! तो जाणार नाही। आणि आला म्हणजे तो पुरा केलाच। भले जग इकडचे तिकडे होवो।  आभाळ कोसळो। त्यांच्या या षौकिन मिजाज तबियती मुळे कित्येक म्हणी, वाक्प्रचार आणि लोककथा पण अस्तित्वात आल्या ! पण चौधरींना त्याच कांही वाटत नाही।

हां, वडाच तेल वांग्यावर, किंवा शेळी जाते जिवानिशी खाणारा  म्हणतो वातड अशा  म्हणींबाबत सगळेच चौधरी नाराज होते, त्यांच्या मते या म्हणी त्यांच्यावर जळणा-या लोकांनी पसरवल्या होत्या. पण तरीसुद्वा त्यांना उत्तर देणं क्रमप्राप्त होत. मग चौधरींनी आपल्या जातीतील कांही भाईबंदांना या  कामी लावल. त्यांनी एकेक नव्या म्हणी गढल्या आणि पसरवल्या. त्यांचं म्हणी पसरवण्याच तंत्र एवढ अफाट होत की या म्हणी लग्गेच लोकांच्या मनात भरल्या . आता ते पण म्हणू लागले - ये दिल मांगे मोर, किंवा कर लो दुनियाँ मुट्ठी में। कांही म्हणी 'सनसनाती ताजगी' ने भरल्या होत्या, तर कांही 'ठंडा, ठंडा, कूल, कूल' होत्या।

हे एवढ काम संपवल्यावर चौधरी पुनः एकदा आपल्या जुन्या षौकाकडे वळले. हा षौक होता घोडे जेरबंद करून त्यावर लगाम कसण्याचा.  यासाठी हवे असलेले कसब चौधरींकडे होते.  जो घोडा जेवढा जिद्दी त्यावर लगाम घालण्यांत तेवढीच मजा। आता चौधरींच्या अश्वशाळेत एकापेक्षा एक भारी जातीचे घोडे होते आणी तरीही त्यांचा घोडे जमवायचा षौक संपत नव्हता.

सांगणारे सांगतात चौधरींचा हा षौक खरा सुरू झाला तो गाढवांमुळे.  झाल अस  की चौधरींकडे आधी तट्टू होते. त्यांच्यावर बोझा वाढत गेला - वाढत गेला आणि पेलेना झाला तेंव्हा कोणीतरी चौधरींना सल्ला  दिला - तुमच्या कडील तट्टाणींना गाढवांजवळ ठेवा - त्यामुवे  जी प्रजा पैदा होईल त्यांची बोझा वाहण्याची क्षमता जास्त असेल. पण चौधरींच्या गांवांमधे गाढव नव्हती. शोध घेता कळल की कुंभारांच्या गांवात गाढव आहेत पण त्यांच्यावर धोबी देखील सामूहिक मालकी सांगतात. तर मग अशी गाढव मिळवण्यासाठी कांय करावे?

अशा प्रश्नांसाठी चौधरींकडे भरपूर कन्सल्टंट होते.  त्यांनी पहाणी करून सल्ला दिला - कुंभारांच्या भांडया - कुंडयांची , गाडग्या - मडक्यांची विक्री फारशी होत नाही. अमुक अमुक तंत्र वापरा.

झाल ! कुंभारांना निमंत्रण गेल - चौधरीकंडे एवढया गाडग्या -मडक्यांची - गरज आहे, माल घेऊन या!

सगळे कुंभार गाढवांवर - आपापली भांडी लादून चौधरींच्या दारांत हजर झाले. चौधरींनी खूप प्रेम दाखवत त्यांचे स्वागत केले.   त्या प्रेमाने कुंभार भारावून गेले.  त्यांच्या प्रमुखाने कृतज्ञता पूर्वक म्हटले - सरकार, माल आपल्या समोर आहे, किंमत ठरवा आणि माल ताव्यांत घ्या.

चौधरींनी आपले जाळ फेकायला सुरूवात केली - किंमत रास्तच देऊ.  कुणापेक्षाही कमी नसेल. तुमच्यावर आतापासून कधीही उपाशी रहाण्याची वेळ येणार नाही -हीच किंमत समजा.

आपली मर्जीकुंभार - प्रमुखाने हात जोडले.

तर मग ठरल - गाढवामागे दोन मण धान्य.

कुंभारांना धन्य वाटल. घरात धान्य धुन्य भरून राहील याची खात्री पटली. प्रमुखाच्या इशा-याबरोबर गाढवांच्या पाठीवरून ओझी उतरायला घेतली. गाढवांना मैदानात सोडून स्वत सावलीत आराम करत बसले. संध्याकाळ झाली तशी आपापली गाढव हाकून एकत्र आणली आणि निघायच्या तयारीला लागले.  त्याबरोबर चौधरींनी कडक स्वरांत विचारले - गाढव कुठे घेऊन चालले

'आमच्या गांवी!कुंभार उत्तरले.

वारेवा आम्हीं ती कधीच विकत धेतली आहेत.

कुंभारांना कांही कळेचना. कुंभार प्रमुख पुढें आला -

सरकार, याला कांय म्हणायचे.

चौधरींचा मुखिया आपल्या मिशांमधे हसला - म्हणाला - अरे, बाबा, कांय किंमत ठरली होती - गाढवामागे - दोन मण धान्य !

पण सरकार, ते गाढवांवरील बोझ्याबद्दल होत.

छे, छे, गाढवामागे दोन मण धान्य - हीच बोली होती. आता गाढवं इथेच रहातील. तुम्हाली धान्य हव की नको ते तुम्ही  ठरवा.  आम्ही कौल दिला आहे - तुम्हाला उपाशी  राहू देणारा नाही.

कुंभारांना काही कळेना. पण एक कळत होत. चौधरींच्या गांवात येऊन, तिथपर्यंत पोचवलेली गाढवं परत घेण अशक्य होत.

कुंभारांनी आपापल्या वाटयाचे दोन-दोन मण धान्य उचलले आणि मुकाटयाने गांवाकडे रवाना झाले.

कुंभार गांवा बाहेर जाताच चौधरींचे गांव सगळ्यांच्या सातमजली हास्याने दुमदुमून गेले.  तेवढयातच कुणीतरी सगळी गाढवं तट्टांच्या अस्तबलात आणली. त्याबरोबर तिथेही खळबळ माजली.  नर तट्टू खट्टू झाले. पण तट्टाणींनी गाढवांच स्वागतच केल. त्यावरून पुनः हास्याच्या लकेरी उमटल्या.

तट्टाणीं आणी गाढवं याच्यातून जी नवी प्रजा जन्माला आली तिच्यात किती तरी गुण होते.  त्यांना पाळीव करण्यासाठी कित्येक सईस बहाल झाले. त्यांनी यांना   कित्येक कसरती शिकवल्या.

झाल ! या घटनेमुळे चौधरींच्या गांवात एक नवा षौक जडला - आपल्या अस्तबलात घोडया - गाढवांच्या नवीन प्रजाति आणायच्या.

आता चौधरींचे गांव घोडामय झाले. जिथे कुठे घोडयाची नवी जात असल्याची कुणकूण आली की चौधरी तिकडे गेलेच आणी कसही करून तो नवा घोडा अस्तबलात आणलाच म्हणून समजा. एकदा चौधरींच्या एका
दोस्त गांवातून एक विशेष घोडा त्यांना नजराणा म्हणून देण्यांत आला.  घोडा अडेल होता. नवीन अस्तबलात त्याने असा उधम केला की ज्याचे नांव ते.  सगळे सईस हरले. शेवटी कांही तरूण चौधरींनी घोडयाला सरळ करण्याचा विडा उचलला. त्याच्या मानेत दोरीचा फास टाकून आधी त्याला जेरबंद केले. त्याच्या टापांवर नाल ठोकली. मगा चाबकाने मारून मारून त्याची साल सोलून काढली. एवढ झाल्यावर घोडयाने गुडघे टेकले आणि सुतासारखा सरळ झाला.

चौधरींच्या दृष्टीने हा विजय बराच मोठा होता. अशा प्रकारे त्यांना कुठल्याही अडेल घोडयाला वठणीवर आणायचा मंत्रच सापडला. त्याबरोबर त्यांचा षौकही बदलला. आता फक्त नव्या जातीच्या घोडयाला अस्तबलात आणून बांधणे एवढे पुरेनासे झाले. तो घोडा सरळ असेल, तर चौधरींना त्याच्यात रस वाटेना. अडेल घोडा पाहिजे - त्याल वठणीवर आणायचा खेळ जितका दमछाक करणारा असेल - तितका तो चांगला.

अशा प्रकारे षौक वाढत असतांनाच एका ठिकाणी आठ मोठयांच्या संमेलनात चौधरींनी एक शानदार घोडा बधितला.  एवढा शानदार घोडा आपल्या अस्तबलात नाही याचे त्यांना वैषम्य वाटू  लगले.  घोडा कुणाचा? हा  पत्ता लावताना कळल  की तो लालबाबूंचा घोडा होता. जात होती तुर्कमीनिया. एक तर खुद्द लालबाबू कडक - त्यांत हा घोडा तर महाकडक. लालबाबू - तर नावशिखांत लाल होतेच.  घोडाही कांही कमी नव्हता.  तोही गहि-या बदामी रंगाचा होता. एकीकडे लालबाबूंचा रुबाब होता तर दुसरीकडे हा तुर्कमीनीया घोडा गटकावायची दुर्दम्य इच्छा चौधरींना स्वस्थ बसू देईना.

चौधरींनी पुनः एकदा आपल्या सल्लागार भाईबंदाना या कामावर लावल.  त्यांनी आता म्हणींच्या ऐवजी अफवांच पीक काढल.   लालबाबूंच्या गांवात  अफवा पसरत चालल्या.  कधी म्हणत लालबाबू स्वतः पुढे कुणाला किंमत देत नाहीत तर कधी म्हणत - लालबाबूंमुळे सगळ्यांचा जीव धारेवर धरला आहे. एक अफवा पसरली  की  लाल रंग डोळ्यांना खुपतो - दुसरी म्हणे - लाल रंगा मुळे ओकारी येते. काही तरूण ओकारी काढत फिरू लगले. वातावरण एवढ  बिधडल की  लालबाबूंनी कांही दिवस आपला कडकपणा सोडून नरमाईने घेण्याचं ठरवलं. बस्‌. इथेच त्यांच चुकल. नरमाईच्या एका दिवशी त्यांनी बघितल -सईस त्यांचा घोडा घेऊन जो गेला तो परत आलाच नाही.  शोध करता कळल की सईस आणी घोडा दोन्हीं चौधरींच्या अस्तबलात आहेत. आता हातावर हात चोळत बसण्यापलीकडे लालबाबू कांही करू शकत नव्हते. तिकडे तुर्कमीनीया घोडा अस्तबलात पोचल्यावर चौधरींना आकाश ठेंगण वाटू लागल.  घोडा तर घोडा, पण त्याचा सईस देखील नामी होता. त्याच रात्री गप्पा करताना त्याने ऐकवल - एवढया अस्तबलाचा कांय उपयोग ? इथे काबुली घोडा कुठेय्‌अस्तबलाभोवती बैठक टाकून बसलेल्या कित्येक चौधरींनी भुवया उंचावल्या. एक वयस्क चौधरी म्हणाले - पण आम्ही तर ऐकल की काबुल मधे घोडे नसतात.

हुजूर, चुकीच ऐकलत - काबुल मधे गाढवं नसतात - पण घोडे असतात.

अच्छा, तुला कसं ठाऊक ?

लालबाबूंबरोबर तिकडे येण जाणं असायच. म्हणून मला ठाऊक आहे की काबुली घोडे असतात आणी वा, कांय असतात ? हा तुर्कमीनीया घोडा त्यांच्या पुढे कांहीच नाही.
आश्चर्य  आहे, आम्हाला कधीच माहीत नव्हत.  त्या घोडयांचे गुण दोष कसे कळणार ?

सईसाची छाती गर्वाने फुलली - तो म्हणाला - हजूर . लालबाबू त्यांच्यावर फिदा होते.   म्हणून मी पण
कित्येक काबुली घोडे हाताळले आहेत. त्यांना कसरत शिकवली आहे. त्यांचे गुण, दोष मल चांगले माहीत आहेत.

चौधरींच्या छातीत ईर्ष्या भरली.   काबुली घोडे या सईसाला माहीत असावेत  आणी आपल्या कडे नसावेत  हे कसे चालणारयार दोस्तांकडे चौकशीला सुरुवात झाली. कुणालाच काबुली घोडयांची फारशी माहिती नव्हती.

पण एक दिवस अचानक एक खब-या आला. त्याने कुजबुजत सांगितले - काबुली घोडे आहेत - पण जेंव्हा त्यांनी चौधरींच्या घोडयांच्या षौकाबद्दल ऐकल, तेंव्हापासुन त्यांनीं आपले घोडे अज्ञात स्थळी लपवून ठेवले आहेत.

चौधरींच्या रागाचा पारा चढला.  अरे, सरळ मार्गाने दिले असतेत, तर किंमत देऊन खरेदी केले असते तुमचे घोडे.  पण आता नाही.  आता आक्रमण करूनच घेणार.

मग काय विचारताचौधरींनी आपापल्या लाठया.  काठया उचलून आक्रमण केले.  काबुल मधे एवढी धूळ  उडवली की ज्याचे नांव ते. पण घोडे दिसेनात. त्या ऐवजी गाढवांची मात्र भरमार होती. याचा अर्थ कांयतो सईस खोटं बोलत होता ? खब-यांनी चुकीची खबर पसरवली होती?

चौधरींच्या रागाचा पारा वाढत चालला.  घोडे नाहीत तर त्यांचा राग गाढवांवर निघाला.  गाढवांवर लाठया काठयांची अशी बरसात झाली की ते दुगाण्या झाडण विसरून पळत सुटले.  आणि तेही कुणीकडेतर घोडे जिथे लपून राहिले होते तिकडेच.

आपल्या लपायच्या ठिकाणांवर गाढव आणि त्यांच्या मागे चौधरींना पाहून घोडे चरकले.  पण त्यांनी डोकं ठिकाणावर ठेऊन आपला व्यूह आखला.  आधी तर आपल्या खुरांनी एवढी धूळ उडवली की ती गाढवांच्या डोळ्यात जाऊन त्यांना दिसेनासे झाले.  तेवढयांत घोडयांनी आपली जागा बदलली. 

धुळीने वैतागलेल्या चौधरींनी सूड घेण्यासाठीं एक एक गुहा गुहा, एक एक कंदरा, एक एक दगड शोघला.  पण एवढ करूनही त्यांच्या हाताला काबुली घोडे लागलेच नाहीत. त्यांना मिळाली फक्त  थोडी फार खच्चरं. 

अशा वेळी त्यांचा आत्मलोभ टिकवून ठेवणे गरजेचे होते.  म्हणून त्यांचा मुखिया पुढे आला. त्याने समजावले - नाही मिळाले घोडे म्हणून एवढे भांबावून जाऊ नका.  आज तुम्ही जगाला दाखबून दिले  आहे की आपली ताकत किती आहे.  आता कुठलाही घोडा असेल किंवा वस्तू - लाठीच्या ताकतीने आपण त्याला वश करू शकतोजगही आता हे ओळखून  चुकले आहे.

मुखियाच्या त्या वाक्याने सर्व चौधरींची छाती पुनः एकदा गर्वाने फुलून गेली.  आपण बसलेल्या घोडयांवरच चाबकाचा वर्षाव करून त्यांनी काबुली घोडयांवरचा राग प्रकट केला आणी गांवी परतले.
असेच कांही दिवस गेले आणी एकदा चौधरींच्या गांवी एक व्यापारी आला - तेलाचा व्यापारी.  त्याच्या चित्र विचित्र पोषाखांतील उंटाला पहाण्यासाठीं पूर्ण गांव लोटला.

व्यापा-याने हात जोडले - साहेब हो, मी तेलाचा व्यापारी आहे - तेल विकतो. तुमच्या गांवाची कीर्ती ऐकून माझा
थोडा माल इथे घेऊन आलो आहे.

तेल शब्द ऐकताच सर्व चौधरीनी कान टवकारले. हा शब्द हल्ली फार महत्त्वाचा झाला होता.  मुखियाच्या अंगणांत व्यापा-याला बसवून त्याची विचारपूस सुरू झाली.

मुखिया जेवण करून आताच कुठे उठले होते.  व्यापा-याची खबर ऐकून दांत कोरत ते अंगणांत आले.  आगंतुकावर एक नजर टाकताच त्याना कळल की हा कांही व्यापारी नाही - तेली आहे तेली. याला व्यापार कांय कळणारतेही चौधरीं बरोबरचा व्यापार ! ते  कांही सोप नाही महाराजा !

इकडे व्यापारी म्हणवणा-या त्या तेल्यानेही मुखिया समोर दिसताच त्यांचे गुणगान सुरू केले - 'तुमच मोठ नांव ऐकल होत.  मोठया लोकांची मोठी कामं ! आज भाग्य उजाडल आणी तुमच दर्शन झालं।'
'ते राहू दे !' मुखियाने दांत कोरणं चालूच ठेवल होतं - 'हात, तोंड धुवून कांही तरी खाऊन पिऊन घे.  मग करू - सौद्याची बात !' मुखियाने इशारा करताच एकाने व्यापा-या समोर पाण्याचा लोटा ठेवला. त्यातल ओंजळ भर पाणी धेऊन व्यापा-याने आपल्या तोंडावर थोडेसे थेंब उडवले आणी डोक्याला बांधलेल्या फेटयाच्या टोकाने तोंड पुसले.  हे बधून अंगणांत बसलेले कित्येक चौधरी खळखळून हसू लगले.  एका प्रौढ चौधरीने टोमणा मारला - तोंडावर पाणी शिंतोडतोस की तेलव्यापारी लाजला.  म्हणाला - हुजूर,
आमच्या देशांत पाण्याचे दुर्भिक्ष्य आहेपाणी जपून वापरायची सवयच पडून गेली आहे.

मुखिया तरी जखमेवर मीठ चोळण्याचीं संधी थोडीच सोडणार? तो म्हणाला - 'आम्हीं असतांना एखाद्या गांवी पाण्याचं दुर्भिक्ष्यबोल, आताच्या आता किती पाणी पाठवू तुझ्या गांवाला?

चौधरींचा विजय असोतुमच्या या उदार सूचनेवर तर आम्हीं आमच्या तेलाच्या खाणी पण तुमच्या ताब्यांत देण्यास तयार आहोत. अस म्हणून व्यापा-याने पाण्याचा तांब्या तोंडाला लावला.

मुखियाला पण कळून चुकले की आपल्याला तेलाची गरज आहे हे या व्यापा-याला समजले आहे.  पण याचे सगळे तेल बाहेर नाहीं काढले तर मी कसचा चौधरीव्यापा-याचे पाणी पिऊन होताच तो म्हणाला - तर मग अस करु या - जितके पाणी हव ते उंटावर लादून घे - तेवढ तेल आम्हाला दे.

व्यापारी म्हणाला - कबूल, कबूल, जेवढ तेल हव तेवढ घ्या.

तेल - पाण्याचा असा मेळ जमला की पाहणारे पहातच राहिले.  या एका घटनेमुळेच किती तरी म्हणी पुढे आल्या. कोणी म्हणाले - तेल बघा, तेलाची धार बघा - कोणी म्हणाले - तेल्याच तेल जळत, मशालजीचा जीव जळतो.

अशी तेला पाण्याची दिलजमाई चालू असतानाच व्यापा-याने विनंती केली - चौधरींचे अस्तबल बघण्याची.  तिथे  गेल्यावर तिथली घोडयांची एकूण रेलचेल पाहून व्यापारी थक्क झाला. त-हे त-हे चे घोडे. तालेवार त्यांचे साईसही तालेवार.  पण सगकळे कसे शिस्तीत. एकही घोडा बेकाबू होऊ शकत नव्हता.

एवढे घोडे जमवल्याबद्दल चौधरींची प्रशंसा करीत व्यापा-याने आपला डाव रचला - 'हुजूर, या सर्व घोडयांची शान - अरबी घोडा - तो - दिसत नाही कुठे ?'

'अरबी घोडा? कमाल आहे, आम्ही कधी ऐकलच नाही अरबी घोडयाबद्दल.'

'हुजूर, आता कांय सांगावेआहेत ते आमचेच जातभाई.  पण तेही व्यापाराबद्दल अत्यंत नाठाळ आणी त्यांचा घोडाही अत्यंत नाठाळ.  आणी विशेष सांगतो - त्यांच्या कडेही तेलाचा भरपूर साठा आहे.'

'असतील नाठाळ. पण शेवटी तेली ते तेलीच. ते कांय व्यापारी थोडेच होणार?'   मुखियाने तेवढयातल्या तेवढयांत टोमणा हाणला.  तेलीही कांही कमी नव्हता.  तो म्हणाला - खरं आहें हुजूर, तेल्याने कितीही म्हटल तरी तो व्यापारी कसा होणार?   किंवा घाणीचा बैल फिरवणा-याने कितीही म्हटल तरी तो चौधरी कसा होणार?

हा टोमणा मुखियाला जरा जास्तच झोंबला. पण तो अनुभवी होता - गप्प राहून तो विचार करू लागला. काबुली घोडयाच्या वेळी जगभरांत जी शोभा झाली ती अजून विसरली नव्हती. पुढचे पाऊल जपून टाकायला हवे.  या व्यापा-याचा तरी कांय भरोसा ?   शेवटी तेलीच हा. तेल्यांच डोक पण खतरनाक चालत.

मुखिया एकाएकी गप्प झाल्याने सगळ्यांच्या डोक्यांत खळबळ सुरू झाली. व्यापा-याने दबकत विचाले - 'सरकार, माझ्या बोलण्यात कांही चूक झाली कां?'

'नाही, तस नाहीं.मुखिया म्हणाला. 'भी जरा अरबी घोडयाचा विचार करीत होता.'

'त्यात विचार करण्यासारखे कांय आहे?   त्यांच्या कडे देखील पाण्याचा प्रश्न आहेच. आपण त्यांना पाणी पाजा. बदल्यांत त्यांचा अरबी घोडा घ्या.'

मुखिया कच्चा नव्हता. हा खेळ दिसतो तितका सरळ नाही हे त्याला कळून चुकले.  पण छडा लावण्या साठी त्यानें उगीचच विचारले  'बर, त्या गांवी जायचा रस्ता कुणीकडून आहे?'

'अरे हुजूर, कांय विचारता?   आमच्याच गांवातून तो रस्ता जातो. म्हणाल तेंव्हा तुम्हाला त्यांच्या सीमे पर्यंत नेऊन सोडू.'

'ठीक तर मग।  आमचा एक माणूस देतो.  त्याला सही सलामत त्या गांवात पोचवायची जबाबदारी तुझी.' मुखिया ने निर्णय सुनावला.

हा अजब निर्णय जंगलातल्या आगीसारखा सर्वत्र पसरला.  त्याच संध्याकाकी मुखियाने समजावलेला एक प्रौढ चौधरी तेल व्यापा-याबरोबर  निघाला. तो सगळया गांवाचा लाडका पण होता. सर्वांना नक्की खात्री होती की हा आपल्या बरोबर अरबी घोडा घेऊनच परतणार.  पण झाल उलटच. तो रिकाम्या हातानेच नव्हे तर काळीजावर एक ओझ घेऊन परत आल्याच स्पष्ट दिसत होत.

त्याने आल्या आल्या वर्णन केल. अरबी घोडा पाहीला. हा खरा जातिवंत घोडा. कांय त्याचे शरीर. काय रग आणी  मस्तीकांय त्याची आयाळ, त्याचे स्नायु, त्याचे पाय, आणी त्याची राजस चाल. बस्स ! ज्याच्या कडे अरबी घोडा नाही त्याच्याकडे कांहीच नाही.

हे वर्णन ऐकणा-यांच्या ह्रदयावर देखील क्विंटल भर ओझ लादल गेल. परिस्थिती हाताबाहेर चालली हे ओळखून मुखियाने सर्वांना दडपल - बंद करा ते घोडा पुराण. कांय रे, कांय उत्तर दिलं त्यांनी

ते पाण्यासाठी - पाण्याइतकच तेल द्यायला तयार आहेत.  मात्र घोडा कोणत्याही किंमतीला देणार नाहीत.

त्या तेल्यांची ही मजाल!  कित्येक चौधरींनी आपल्या बाह्या सरसावल्या.

थाबा. यातून मार्ग निघेल जरूर. आपल्या कडे येणारा जो तेल व्यापारी आहे त्याचाच उपयोग करायचा.  बस्स!  तोपर्यंत तुम्हा सर्वांनी आपापली कामं बघत रहायची.

थोडयाच दिवसांत मुखियाच्या सुपीक डोक्यांत एक आयडिया आली.  आधी चौधरींनी तेल व्यापा-या बरोबर तेला ऐवजी पाणी हा सौदा मंजूर करून घेतला.  अशा प्रकारे व्यापा-याच्या देशांत त्यांच जाण येण सुरू झाल.  कधी तेलाची खाण पहाण्यासाठी तर  कधी तेल उपसणा-या रिग्जच्या तपासणी साठी. इकडे अरबीं घोडयाची माहिती काढण चालूच होत. शेवटी सर्व तयारी पूर्ण झाली तशी मुखिया ने तेल व्यापा-याला आपल्या मैत्रीचा हवाल देऊन तकाजा केला - आमचे कांही हुषार सईस तुझ्या घरी डेरा टाकून रहातील. रात्री सगळ जग झोपल असेल तेंव्हा ते गुपचुप अरबी घोडयाच्या देशांत जाऊन अरबी घोडा घेऊन पळून येतील.

व्यापारी म्हणाला - सरकार, आम्ही सर्व आपल्या शब्दाबाहेर नाही - पण यामधे आम्हाला धोका तर नाही ना होणार? कांही संकट तर नाही येणार!

छट्, कसल धोका न्‌ कसल संकट? आमचे लठैत मग कांय कामाचेसईसांबरोबर तेही येऊन रहातील तुमच्या गांवात. संकटाची चाहूल जरी लगली तरी लाठमारी करून त्या संकटाला चेचून टाकू.

बस्‌! ही युक्ती सफल झाली.  रातो रात अरबी घोडा चौधरींच्या अस्तबलांत बांधला गेला. त्याला पहायला सर्व गांव लोटला.  जो बघे तोच म्हणे खरचयाच्या एवढ शानदार जनावर पाहिल नव्हत.

अशा घोडयावर स्वारी बांधण्याचा मोह कसा टाळणारएक अनुभवी षौकीन चौधरी  उडी मारून घोडयाच्या पाठीवर बसला.

पण हे कांय ? वीज लवलव त्याप्रमाणे घोडयाने पुढचे दोन्हीं पाय वर उचलले आणी जोरात खिंकाळला.  त्यावर बसलेला सवार इतक्या वेगाने जमिनीवर येऊन आपटला की बघणा-यांच्या जिवाच पाणी झाल.  त्याला पटकून घोडा जो उसळला तो सरळ अस्तबलाच्या बाहेर येऊन दौडत सुटला.

हे चौधरींना कस चालणारत्यांनी सगळीकडून धावाधाव करुन आखिर घोडयाला जेरबंद केलच. मग त्याला इतक बेदम चोपल की घोडयाच्या शरीरातून जागोजागी रक्त वाहू लागले. तरीही त्याचे खिंकाळणे आणी  मस्ती कमी होईना. शेवटी चाबूक घेऊन एक चौधरी पुढे आला तसा सईसाने त्याला अडवल - हुजूर, अस करू नका. घोडा दुखावला तर एवढा शानदार घोडा हातातून जाईल.

तर मग कसा काबूत आणायचा?

त्याचा दाणागोटा बंद करु या. मग आपोआप ताळयावर येईल.

पण त्याच्या जखमा वाहू देत. मच्छर - माशा त्रास देतील तेंव्हा कळेल बच्चमजीला - एका चौधरीने दांतावर दात घासत आपल राग व्यक्त केला.

तस मुळीच करू नका - दुसरा अनुभवी सईस उद्गारला. तशाने तो मरेलच पण त्याचे रोग पसरून इतर घोडेही मरतील. 

हा उतारा लागू पडला. लगेचच घोडयाला मलम - पट्टी करण्यांत आली. पण त्याचं दाणा-पाणी मात्र बंद केल.

चार दिवस होतात न. होतात तोच चौधरींना पुनः एकदा अरबी घोडयावर - सवारी करायची हुक्की आली. अजूनपर्यंत या घोडयावर नकेल बांधण्यांत आली नव्हती. तेच काम आधी कराव म्हणून चौधरीं नवीन दोर घेऊन आले.

पण घोडयाची रग अजून शमली नव्हती.  चौधरींना पाहून त्याने पुनः असा उत्पात केल की विचारू नका. त्याला नकेल बांधण किंवा त्यावर स्वार होणं कुणालाच जमल नाही.
मग तिसरा प्रयत्न, मग चौथा - - -.  पण जो घोडा सईसांबरोबर सरळ वागत होतातो कांही केल्या अजूनही कुणालाच पाठीवर बसू देत नव्हता आणी आयाळीवर हात टाकू देत नव्हता - नकेल लावण तर दूरच.

त्याला जेरबंद करायचे चौधरींचे प्रयत्न जितके फसत चालते, तितके त्यांच्यी खिल्ली उडवणा-यांची जमात वाढत चालली.

शेवटी मुखियाने निर्णय घेतला - आता हा खेळ संपवलाच पाहिजे.

दुस-या दिवशी सर्व जगाने  जबर्दस्त धमाका ऐकला.  त्याने कानांत आलेस्या झिणझिण्या उतरायला कांहींना कित्येक दिवस लागले.

धमाक्याची धूळ ओसरल्यावर सर्व मुखियाकडे धावले तशी मुखियाने सर्वांना समजावले - घोडा पागल झाला की त्याला गोळी घालावीच लागते.

थक्क होऊन जगाने हे तत्त्वज्ञान ऐकल आणी अरबी घोडा पागल झाला होता हे कबूल केल.  कित्येक गांव शहाणी निधाली.  त्यांनी आपले घोडे चौधरींच्या अस्तबलात नेऊन बांधले.

महाराजा, ती तर माणस होती. मात्र जगाने आणखीन एक अप्रूप पाहिले - तमाम काठियावाडी घोडे स्वतःच माना खाली घालून चौधरींच्या अस्तबलाकडे पळत निधाले होते.
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प्रकाशन : नया ज्ञानोदय - ऑ. २००३

लेखक  : अवधेश प्रीत - हिंदुस्तान दैनिकाच्या पटना येथील एडिशन चे उपसंपादक

जन्म बिहार - गाजीपुर नवोदित कथाकार - दोन
कथा संग्रह नृशंसआणी हस्तक्षेप - प्रकाशित.