अकेला
धुंध और धुंध | चारों तरफ से धिरता हुआ कुहासा | वेदनामयी ठंडक | और उसके अधिक तीखा अकेलेपन का एहसास | पर आज यह अकेलापन उसे सालता नहीं |
उसके सारे साथी पीछे छूट गये है | कोई सीने पर गोली खाकर, कोई बुरी तरह जख्मी होकर | उसकी चौकी के कितने सिपाही बचे होंगे इस भीषण गोलाबारी में? काश, वह जान सकता | लेकिन उसे खुशी है कि अपने पद की जिम्मेदारी उसने निभाई है | दुश्मन का पीछा करते हुए वह इतनी दूर निकल आया और बुरी तरह जख्मी भी हुआ | पर दुश्मन का एक भी सिपाही बचकर नहीं जा सका | वह अकेला है ते क्या हुआ | उसके सिपाही तो सुरक्षित रहे, उसकी चौकी तो अजेय रही |
चारों ओर बर्फीली वादियाँ फैली है | सिर उठाकर इन चोटियों से स्पर्धा करते देवदार और चीड़ के ये जंगल | एक अद्भुत गहरी नीलिमा ने अपनी चादर फैलाकर चाँद की मद्घिम रोशनी की और फीका कर दिया है | भीर के आने में देर है | लेकिन वह आयेगी और सारे रंग उजियाले में धुल जायेंगे | पास कहीं किसी झरने के बहने की आवाज आ रही है | क्या वह कोशिक करे - घिसट घिसटकर वहाँ तक पहुँचने की? उसके सहारे अपनी चौकी खोजने की? पर नहीं | जख्मों से इतना खून बहा है कि उसमें अपनी जगह से हिलने की भी शक्ति नहीं है| मन पर से वह बोझ उतरा है कि उसे कुछ और करना, कुछ और सोचना-अच्छा नहीं लगता है | ठंड से उसके सारे अवयव अकड गये हैं | शायद दांत भी बज रहे हो | जांघ में घुसी गोली का घाव बुरी तरह दर्द कर रहा है फिर भी उसे न सर्दी का एहसास है और न दर्द का | उसे अपना बचपन याद आ रहा है |
वह अपने घर का अकेला लडका है | मम्मी-डॅडी का दुलारा | पर यह दुलार उसके भाग्य में कहॉ? डेडी की आफिस से, मम्मी को क्लब से और दानों की अपनी पार्टियों से शायद ही कभी फुर्सत मिलती हो | इतने बड़े घर के छोटे सर्वेंट हाउस में संजीव रहता है | हर शाम उसकी माँ उसकी छोटी बहन को नये कपड़े पहनाकर, आँखों में काजल डालकर सजाती है | उसे बड़ी जिम्मेदारी के साथ संजीव पार्क में घुमाने ले जाता है | संजीव भी तो उसी की उम्र का है, आठ नौ साल का | लेकिन इस काम को करते समय शान से गर्दन इतनी उँची उठाता है मानों बीस पचीस साल का हो | एक बार पार्क में उसने भी छोटी को घुमाना चाहा तो संजीव ने साफ कह दिया था, तुमसे गिर जायेगी | तब उसे कितना गुस्सा आया था |
दुसरे घर में युगल जोड़ी है मुन्ना और राजू की | जब मुन्ना पतंग की ढील देता है राजू जल्दी-जल्दी मॉझा खोजता है | दूसरी पतंग यह जा, वह जा और कटी | अपने छत से यह सब देखते हुए वह दिल मसोस कर रह जाता है |
धीरे- धीरे वह समझ रहा है कि मम्मी-डेडी से कुछ कहना बेकार है | पहले-वहले वह जिद करता कि उसे भी भाई या बहन चाहिये | कभी- कभी चीखकर घर को सिर पर भी उठा लेता | लेकिन मम्मी-डेडी नाराजगी से एक बार उसे और एक बार एक दूसरे को देखकर अपने- अपने कमरों में चले जाते | बाद में नौकरों की चुपके-चुपके आपस में खुसुर- पुसुर करते देख अब उसने शिकयत करना छोड़ दिया है | यह तो उसकी समझ में बहुत बाद में आया कि मम्मी-डेडी की आपस में बनती नहीं है, मिलाप का वह मुखौटा केवल पार्टियों के लिये है |
उस दिन को वह भूल नहीं सकता जब से होस्टल भेजा गया | क्लासेस नये-नये खुले थे | कई नये लड़के आये थे | दोस्ती करने-कराने के दौरान किसी ने उससे कह दिया था यार बड़े भाग्यशाली हो, तुम्हारा हिस्सा बँटाने वाला कोई नहीं है | वह कैसे समझाता कि वह सब कुछ बॉटने को तैयार है यदि कोई उसका अकेलापन बाँट ले |
वह तड़प और गुस्सा रास्ते के पत्थरों पर उतारता हुआ जब वह घर पहुँचा तो आया और नौकर गायब थे | बगल में कहीं एक मजदूर औरत को साँप ने काटा था उसे देखने चले गये थे | उसका खाना रसोई में ढककर रखा था |मम्मी ने कभी उसके साथ खाना खाया हो यह तो उसे याद नहीं पर आया भी साथ न हो इससे बड़ा अन्याय क्या होगा? गुस्से में उसने गिलास उठाकर पटक दिया | फिर तश्तरी की बारी आई | फिर तमाम कटोरियाँ क्रिकेट - बाल की तरह उछलने लगी | और तभी मम्मी के सिर दर्द के कारण पार्टी का मूड उखड़ जाने से नाराज डेडी घर में दाखिल हो रहे थे | उस मार का उसे दुख नहीं है लेकिन आया को निकाले जाने का और उसके होस्टल भेजे जाने का उसे दुख है | होस्टल मन भाने पर भी अकेलेपन की कसक उसके मन में रह गई |
वह कसक दुबारा उठी थी पाकिस्तानी हमले के समय| उन दिनों रेडियो पर लगातार कच्छ के मैदान में पाकिस्तानी आक्रमण के समाचार आ रहे थे | देश भर में आक्रमण कारी के प्रति आक्रोश और क्रोध की लहर दौड़ गई थी| साथ ही इस बार किसी कीमत पर न हारने का दृढ़ संकल्प था | उसके कितने ही साथी सेना में भर्ती हो रहे थे | जब उसने डेडी से अपने भर्ती होने की इच्छा बताई तो उन्होंने बेहद ठंडे और अधिकार भरे स्वर में कहा था, नहीं | उसे अनुमति नहीं मिल सकती क्योंकि वह उनका अकेला लड़का है | तब न तो वह डेडी को देश की दुहाई दे पाया और न उस स्वर के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त कर पाया | एक ही शब्द बार-बार उसके कान में गूंजता रहा, अकेला, अकेला |
अपनी जिद से सेना में भर्ती हो जाने पर उसे लगा था मानों उसे एक नई दुनियाँ मिल गई हो | देश के किस किस कोने मे, किन-किन हालतों में जवान भर्ती हुए थे | सबके बीच अपनी अलमस्ती से, अपनी हर वक्त हँसी मजाक की आदत से, उसने जगह बना ली थी | कितने दिनों से वह इस चौकी पर था लेकिन उसके ठहाकों ने चौकी के एक भी जवान को अकेलापन महसूस नहीं होने दिया | फिर भी उसके अन्दर का अकेलापन नहीं मिट सका था, आज तक, कुछ देर पहले तक |
और अब? उसे हँसी आ रही है| कैसा वह बुद्घू था जो आजतक अपने साथी को पहचान नहीं सका | यह हिमालय| युग-युग से इसी अकेलेपन को अपने आप में समेटे खड़ा है | इन झरनों ने और बर्फीली हवाओं ले कितने वर्षो की कहानियाँ उसकी छ़ाती पर लिख डाली | पेड़ो ने कितने वर्षो तक उसका नमन किया | पर सबके बीच सबसे अलग एक शांत योगी के समान वह मूक दर्शक खड़ा है | एक साथी की प्रतीक्षा में | ठीक उसी तरह | उसे लगा मानों हिमालय की खोज आज पूरी हुई हो | कैसी यह अजीब दोस्ती है | हिमालय उसके देश का प्रहरी और वह हिमालय का प्रहरी। अपनी विशाल गोद में इस नये साथी को छिपाये हिमालय मानों विहँस रहा है | उसका आनंद उष्णता बनकर झलक रहा है | उसे धीरे-धीरे इस उष्णता का अनुभव हो रहा है| अब यह पलकें कभी नहीं खुलें, उसे उसकी परवाह नहीं|
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अनुवाद---- श्रीमती लीना मेहेंदले
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बुधवार, 16 सितंबर 2009
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