सोमवार, 9 नवंबर 2015

भगीरथाचे पुत्र -- अनुवाद

सन अठराह सौ साठ के आसपास
  • एक जलती दोपहर-

शिवालिक - हिमालय की दक्षिणी उपत्यकाओं में धवलगिरी नामक हिमाच्छादित मंदारमाला पूरब - पक्ष्चिम फैली हुई है।

शिवालिक श्रृंखला भी दो भागों में बँटी हूई है। एक है नयनादेवी धार तो दूसरी रामगढ धार। इन्हीं दो धाराओ के बीच बलखाती- मचलती और घुमावदार मंडले लेती हुई सतलज बहती है। तराई मे उतरती हुई थोडी दक्षिणवाहिनी हो जाती है।

ग्रीष्म के दिन चल रहे थे। दक्षिणवायु अपना सौम्य रुप छोडकर प्रचंड वेगसे शिखरों से टकरा रहा था। इस टकराव में उसकी हार सदा ही अटल थी। प्रस्तर चट्टान पर बिखरती सागर - लहरों की तरह वह भी हिमशिखरों पर टकरा कर शतशः विदीर्ण हो जाता। फिर गरगराता हुआ चारों दिशाओं में नाचने लगता।

इस वर्ष भी इस उपक्रम में कोंई खण्ड नही था। चारों दिशाओ में बिखरने पर वायु का एक प्रवाह पूरब की ओर तिब्बत की दिशा में बह रहा था। ऐसा प्रचंड सतलज का प्रवाह । लेकिन उलटी दिशा के वायु के वेग में वह प्रवाह भी मूर्च्छित सा ठहर रहा था । धूलिके चक्राकर आवर्त सतलज के प्रवाह पर चलते हुए दूर -दूर तक जाकर विलीन हो रहे थे।

पूरा प्रदेश घने जंगल से आच्छादित था। सीधी ऊँचाई में चालीस, साठ फूट ऊपर तक उठते आगणित वृक्ष ऐसे सटकर खडे थे कि उनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल पड जाय। वहॉं सीशम थे, बाँस के जंगल थे । चीड की टहनियोंसे हवा गुजरती तो जैसे गाय पूँछ फटकारे, कुछ ऐसी ही चमत्कारी सीत्कार वातावरण में गूँज जाती ।

ऐसेही एक बाँस के जमावडे से रास्ता बनाता हुआ एक उग्र नागा बैरागी चला जा रहा था। वह सतलज के दक्षिण तट से उगम तकके प्रवास का आकांक्षी था। इसे नदी की अपसव्य प्रदक्षिणा कहते हैं जिसका तंत्रसाधना में अतिशय महत्व है। पहले तिब्बत में मानसरोवर तक पहुँच कर सरोवर से बाँये मुडकर सतलज के उत्तरी तट पर प्रदक्षिणा पूरी होती थी।

प्रवास कोई खास सुखप्रद नही था। सतलज तट की चट्टानें हिमालय की अन्य चट्टानों की तरह भुरभुराती हुई थीं। कोई एकाध गोल मटोल पत्थर - उसके आधार से उसे घेर कर टिकी हुई महीन बालू - बीच में कभी कभार लाल धारियाँ बनाता हुआ कोई मुरुम (?) का पत्थर । सारा कुछ ऐसा कि पाँव फिसले तो कपाल-मोक्ष का संकट । गिरते हुए किसी झाड- झंखड को आदमी पकड ले तो सहायता  तो दूर, उलटे भुरभुरी बालू का वह झाड उखड कर हाथ में आ जायेगा और आदमी अपनी  गतिके आवेग में गिरता चला जायगा। खैर। इन सारी कठिनाइयों को अपने मनोबलसे एक ओर ठेलते हुए बैरागी अपनी ही धुनमें चला जा रहा था। जैसा उग्र उसका निश्चय था वैसा ही उग्र भेष भी था। मस्तक पर से लम्बे घने बाल बारंबार कपाल और आँखो पर आकर पसर जाते । गठी हुई अंगुलियों से वह उन्हें पीछे धकेलता । कपाल पर पसीना गहरा चुका था और 

उसकी धार नाक के पास से चूकर दाढी में लुप्त हो  रही थी । उसीके साथ कपाल पर पोती हुई भभूती और रोली भी बहकर आ 

रही थी । भस्म पुता हुआ पेट लोहार की भस्त्रिका की भाँति धपधप कर रहा था। अपनी लाल उग्र आँखों से वह दूर तक 

निहारता , फिर झाडियों से राह बनाता हुआ आगे को चलता।


बैरागी की काँखमें लम्बा मोटा, इस्पात का चिमटा था। इतना लम्बा कि यदि संभल न सके तो चिमटे को जमीन पर रोपकर उसका सहारा लिया जा सके। लेकिन एकबार चिमटा जमीन पर गाड दिया तो फिर एक दिन - एक रात उसी स्थान पर यात्रा खंडित करनी पडती है।इसलिये वह मनोयोगपूर्वक चिमटे को काँख में दबाये छोटे लम्बे डग भरता हुआ जा रहा था।

चलते चलते अचानक उसने देखा कि राह संकुचित हो रही है। परली तरफ का पर्वत (टेकडी-?) जो अबतक दूरस्थ था अब बिलकुल समीप आकर सतलज का मार्ग अवरुद्ध कर रहा था। इस अवरोध से क्रुद्ध सतलज धारा तीव्र गर्जना से पर्वत को डिगाने का निरर्थक प्रयास कर रही थी, और फिर उस कष्टसाध्य संकीर्ण रास्ते को पार हाँफती हुई आगे बढ रही थी।

बैरागी अपार आश्चर्य में डूब गया। मुख का उग्र भाव जाकर अब वहाँ विस्मय भाव आ बसा । मिट्टी - रोडे की राह छोड कर वह सतलज के पानी में उतर गया । यहाँ सतलज के दोनों तट इतने समीप थे कि भँवर से बन रहे थे। यदि वह आँखे मूँदकर थोडासा चले तो कहना कठिन है कि किस किनारे पर जा निकलेगा ।

दोनों किनारों पर गगन चुम्बी - वृक्षों की उँची फुनगियाँ आकाश में ही मानों एक दूसरे में घुलमिल रह थीं। नदी के संकरे पात्र में तरह तरह के गोल पत्थर एकत्रित हुए थे। इन्हीं से टकरातो हुए पानी किसी तरह अपना रास्ता बना रहा था। उसकी वेदना को आकाश से छुपाने की गरज से दोनों तटों के वृक्षों ने अपनी शाखाएँ आपस में सटाकर चंदोबा सा बना लिया था। मस्तक ऊँचा कर देखने पर आकाश था, और दृष्टी को संम्मोहित करती हुई वृक्षो की डोलती शाखाएँ ।

देरतक बैरागी प्रकृती के इस कौतुकको देखता हुआ खडा रहा।

फिर एक दीर्घ निश्वास के साथ कपाल पर से पसीना पोंछता हुआ बोला- हे ईश्वर तेरे कौतुक निराले हैं।

तभी काँधेपर पानी की पखाल लिये एक आदमी दूसरे हाथ से पाजामे को ऊपर उठाये झाडी को चीरता हुआ नीचे की ओर आता दिखा। बैरागी को देखकर वह भी थमक गया। पास आकर आदर से बोला - मत्था टेकूँ महाराज ।

आसीरबाद । बैरागी पुटपुटाया और अपनी पैनी दृष्टीसे उस मनुष्य को देखता रहा। बैरागी से आँख मिलाने का साहस मनुष्य ने नही किया । अपनी राह वह बढनेही वाला था कि बैरागी गुरगुराया -  सुनो।

अगला कदम उठाने का साहस उसमें नही था । विनम्रता से बोला - आग्याँ हो देवता”

इस अस्थान का नाम क्या है?’’

मृदु स्वर से पथिक को थोडा ढाढस बंधा तो वह बोलता चला गया -- 
इस ठिकाने को सिरापा कहते हैं महाराज । माता सतलुज यहाँ दोनों किनारों से बाट पूछती चलती है। पुरानी कथा है महाराज कि सत्ययुग में महाबली भीम ने माता ई का प्रवाह यहाँ रोक लिया था ।’’  
’’ रे मूरख । भीम द्वापर युग में था कि सत्य युग में?’’ 

हम अनाडी क्या जानें , देवता । लेकिन यह सत्य है कि भीम ने प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया था। और ये जो पहाडियों चहुँ दिशामें पसरी हुई हैं- अर्जुन ने सूं सूं तीर चलाकर इन्हें पीछे ठेल दिया था । क्यों ? तो जब भीम ने प्रवाह को रोक दिया तो पानी इतना चढा कि दुरपती के बाल भींगने लगे। फिर क्या था । अर्जुन ने बाणों से पहाडों को ढेल कर पीछे किया। तब कहीं नदी के पानी के लिये जगह बनी । बिलकुल सच्ची कथा कहूँ हूँ देवता ।’’ 

फिर आगे क्या हुआ?
तभी  मुर्गा कुकूड कूँ बोलने लगा । उसका बखत अभी नही हुआ था। लेकिन भीम ने दुरपती को कहा था यहाँ एक ही रात्री में तेरे लिये मानसरोवर - जैसा सरोवर बनाऊँगा। वह इन दोनों पहाडियों से पीठ सटाकर बैठा रहा। पानी चढने लगा। कृमि कीटक मरने लगें। मानों अब जलप्रलय ही होके रहेगा। देवताओं को दया आई।उन्होंने मुर्गे को आज्ञा दी -- कुकुड कूँ करो। फिर क्या था? भीम को उठना पडा।

ऐसी कथा है महात्मा। यहाँ तो दोनों पहाडियाँ ऐसी सटी हैं कि बाघ एक ही छलांग मे इधर से उधर जाता हैं। शिकार के पेट का पानी भी नही हिलता ।

उस पुरातन कथा और जलप्रलय के प्रसंग को और कथा कहने वाले को भी विदा कह कर बैरागी आगे चला।

चढाई पार कर थोडा समलत आया तो बैरागी ने आश्चर्य से देखा- सचमुच यहाँ आकर पहाडियाँ दूर - दूर फैल गई थी- लगा कि वाकई अर्जुन के बाण से पीछे सरक गई थीं । उन्हीं के बीच इठलाती और घूमघूम कर दिशा बदलती सतलज बही जा रही थी।

आगे समतल था। तेज गति से चलते हुए बैरागी सिरापा से दो कोस दूर गाँव के पनघट पर पहुँचा । वहाँ दो चार स्त्रियाँ बालू से रगडकर अपने तांबे काँसे के घडे साफ कर रही थीं। बैरागी को देखकर उन्होंने आँचल सिर पर ले लिया।

बैरागी ने पूछा कौन बस्ती?

उसके उग्र रुपको देखती स्त्रियाँ चुप रही । बैरागी ने फिर कडकर पूछा - अरी उत्तर क्यों नही देती ? कौन बस्ती?

एक स्त्री ने किसी यह संभलकर कहा मत्था टेकूँ महाराज । ये भाकडा है।
ये भाकडा है - बैरागी ने  दुहराया

पनघट छोडकर वह बस्ती की और मुडा। कुछेक घर इधर, कुछ उधर - बस्ती बिखरी हुई थी । खेत में कही गेहूँ, कहीं चना बोया था जो
 कटाई पर आ चला था। किसी के आंगन में नींबू दीख जाता तो किसी के केला। बीच में एक घेरे वाले पीपल की टहनी पर लाल कपडा 
बंधा था। अर्थात वहाँ मंदिर था। पास जाकर बैरागी ने देखा - नरसिंहका मंदिर था। बैरागी मूर्ति के सामने खडा रहा। फिर बांये पैर को
 उठाकर दाहिनी जंघा पर रख लिया। बांये हाथ से चिमटे को जमीन पर गाडकर पकड लिया। इस प्रकार गरुडासन सिद्ध हुआ।

अर्थ स्पष्ट था। बैरागी किसी के पास याचना नही करेगा। उस कडकती धूप में किसी गृहस्थ का कर्तव्य था कि बैरागी के लिये रसोई सामग्री प्रस्तुत करे। 

लेकिन आज गाँव के सारे बडे बूढे पुरुष परली पार बालकनाथ के मेले में गये थे। पीछे रहीं स्त्रियाँ और बालबच्चे। स्त्रियाँ सिर पर आँचल लिये घर के अंदर घुसी रहीं। बालबच्चे अवश्य कौतुहल वश जमा हो गये। लेकिन दरवाजों की आड से बुलावा आनेपर एक एक चले गये।

वायु अचानक स्तब्ध हो गया था। धूप मानों ज्वाला लेकर उतरी थी । जमीन और पहाडियाँ भी सुबह की झेली गर्मी को वापस फेंक रही थीं। दूर क्षितिज में मृगजल की लहरें दोलायमान थीं। पसीने की धारा फूट पडने पर बैरागी का गरुडासन जरा भी नही हिला।

बाद में - बहुत बाद में बैरागी को समझ आया कि इस गाँव में उसके भोजन की व्यवस्था कोई नही करने वाला ।उसकी भौंहे तन गईं । आँखों की लाली अब क्रोध में और उग्र हो चली। दहिने हाथ की मुठ्ठी भींच गई।

क्रोध में भरभराते हुए उसने गरुडासन खोला। झुककर मुठ्ठीभर माटी उठा ली। उसे ही भभूती की तरह शरीर पर रगडते हुए उसने गर्जना की -- यह पूरा गाँव पानी के नीचे डूब जायेगा। 

जो स्त्रियाँ दरवाजे की फाँक से झांककर उसे देख रहीं थी . उन्होंने धडाक से दरवाजे बंद कर लिये और  एक दूसरे से लिपटकर बिलखने लगीं।
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मंगलवार, 16 जून 2015

चंदर, आजोबा आणि गव्हाणे गुरुजी

पराशरन, चंदर, हलब्या, आजोबा आणि गव्हाणे गुरुजी
(डायरीतील पूर्ण इथे आलेले नाही)

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ट्रिंनिंग... ट्रिंग... ट्रिंग...


पराशरन ने चौथी रिंग वाजण्याच्या आत फोन उचलला. साहेबांची सूचनाच तशी होती. कोणतेही कार्यालय किती कार्यक्षम आहे ते त्यातील लोकांच्या व्यवहारातील छोटया छोटया गोष्टींवरून समजते असे साहेब म्हणत. त्यांनी स्वतः कार्यक्षमतेच्या काही खाणाखुणा ठरवल्या होत्या. त्यातलीच ही एक खूण होती - बाहेरून आलेला फोन चौथी रिंग होण्याच्या आत उचलला गेला तरच माझा पीए कार्यक्षम.

“जमेल का हे तुला?” तुझी परीक्षा घेतानाचा हा पहिला प्रश्न आहे अस समज. तो ही कम्पलसरी सोडवण्याच्या!” असे म्हणत हलधर सिंहाने त्याच्याकडे पहिल्याच इंटरव्यूचा पहिलाच चॅलेंज फेकला होता. 

पण हलधर सिंहाच्या चेह-यावर एक आश्वासक हसू होते. म्हणूनच पराशरन ने तितक्याच हिमतीने त्या चॅलेंजला हो असे म्हटले होते. बाहेरून आलेल्या फोनची घंटी वाजली आणि इतर कामांची गडबड नसली तर तो प्रसंग आठवून पुन्हा एकदा हसायला पराशरनला नेहमीच आवडत असे. ते दोन-तीन सेकंद निखालस त्याचेच असत.

“नमस्कार भारत-वूल्स का कार्यालय”-फोनच्या इंडिकेटर वरून तो बाहेरगावचा फोन असल्याचे कळत होते.

"................."
“ आहेत  ना. पुढल्या महिन्यांत१२-१३ तारखा साहेबांच्या मोकळ्या आहेत असं दिसतयतुम्हाला तयारीला पुरतील ना सहा आठवडे?”
"............."
“ मी व्हीसी साहेबांना फोन जोडून देतो आणि हे सांगतो  
अर्ध्या मिनिटातच विवेकानंद युनिव्हर्सिटीचे व्हीसी लाईन वर होते.
“ नमस्कार सर,   देतोच सीएमडी साहेबांना ” पराशरन ने तो कॉल जोडून दिला आणि आता पुढील
सूचनेसाठी साहेब कधी बोलावतात त्याची वाट पाहू लागला.
अपेक्षेप्रमाणे लगेचच त्याच्या टेबलावर एक नाजुक दिवा चमकू लागलासाहेबांनी आत बोलावलयकुसुमला फोन बघण्याचा इशारा करून तो आपले नोट पॅड घेऊन आत गेला.
“ बारा तारीख पुढच्या महिन्यांत नागपूरचालेल ना आपल्याला.



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पहाटे कोबड्याच्या आरवाने चंदरला जाग आली. सवयी प्रमाणे तो उठून बाहेर आला. पश्चिमेकडे डोंगर दूरवर विस्तीर्णपणे पहुडलेले होते. त्यांच्या शिखरावरुन पूर्वेकडे उगवत्या सूर्याची किरणे चमकू लागली होती.
आकाशात बारक्या पाखरांचे थवे झेपावत होते. चा-याच्या शोधात निघालेल्या पक्ष्यांच्या रांगा पाहून चंदर हरखुन गेला. पण क्षणभरातच त्याच्या विचारांची दिशा पालटली. थोड्या दिवसात त्याला ही कूच करायचे आहे -- चा-याच्या शोधात त्याच्या कळपाबरोबर.  या वर्षापासुन हळब्याला ही सोबत न्याव लागणार. डोंगरावर आता नसलेल्या पण सुदूर भूतकाळात असलेल्या झाडांची आठवण त्याला व्याकुळ करु लागली.
त्याचे आजोबा एके काळी गांवांत बड प्रस्थ होते. गांवच्या पाटलांसोबत घनिष्ट मैत्रिचे संबंध होते. मेंढपाळच असले तरी आठशेच्या वर मेंढरांचा कळप होता.  त्यांच्याकडे जमिन व्यवहारांच्या न्याय निवाड्याबाबत विचारा करायला व सल्ला घ्यायला कित्येक लोक येत. गावकुसाच्या निर्मिती ची प्रक्रिया ते चांगली जाणून होते. त्यांनीच थोडे थोडे करून अधून मधून चंदरला शिकवले होते.
नवीन गावं वसवले जाते तेव्हा येवू घातलेल्या लोकवस्तीसाठी पुढील शंभर एक वर्षात किती जमीन लागेल याचा अंदाज घेऊन गावठाणाची जागा ठरवली जाते. पण गावठाण म्हणजे केवळ सर्व घरांना लागणा-या जागेची बेरीज नसते. गावाला समाज व्यवहार दांडगा असतो. त्यांना हवे असतात तळी, विहीर, पाणवठे, कुस्तीचे मैदान, मंदिर, गुरुकुल किवा शाळा.  झालेच तर त्यांच्या बलुतेदारांच्या संख्येप्रमाणे त्या त्या व्यवसायासाठी लागणारी वेगळी व्यवस्था. उदाहरणार्थ- गुराच कातड कमवायसाठी मोठी जागा लागते- त्यावर हिरड्याची प्रक्रिया करावी लागते- त्यात बरेच सांडपाणी टाकले जाते -- त्याचा निचरा! काही गावात विणकर जास्त असतात.  तर त्यांना ताना- बाना करण्यासाठी मोठे मैदान लागेल. अडीचवार सतरंजी विणायसाठी अडीच वारांवर ठोकलेले खांब हवेत. मैदानाशिवाय हे कसे होणार? नदीकाठी गांव असेल आणि तिचे मासेमारी होणार असेल तर होड्यांची जागा, जाळी पसरण्यासाठी व दुरूस्तीसाठी लागणारी जागा हवी. अश्या प्रकारे प्रत्येक गावाची गरज वेगळी, त्या गरजेपायी राखून ठेवावी लागणारी जागा पण वेगळी.
गावाला शेती हवीच. म्हणून गावठाणापलीकडे शेतजमीन असेल. ती मालकी प्रमाणे ज्यानी त्याने पिकवायची. पण गावात तर पशुधन असणारच. गाई, म्हशी, कुत्रे-माजरी, गाढव-घोडे, शेळ्या-मेंढ्या, कोंबड्या- बदक. त्यांच्या मोठ्या गुरांना मोठ्या प्रमाणात चराऊ रान पाहीजे. त्यामध्ये गवत, झाड पाला यांची रेलचेल असली पाहीजे. अशी गावांची चराऊ कुरणं पशुधनाप्रमाणे ठरवावी लागतील. शिवाय गावाच्या हजारो गरजांसाठी जंगल हवेचं. तिथून लाकूड-फाटा, गवत, बांबू, कुडं, रानभाज्या. कंदमुळे, पत्रावळीची पान. रानमेवा, करवंद-बोरी, कवठ, चिंच, शिकेकाई, रिठा, चारोळ्या इत्यादी. आणून गावातील कित्तेक व्यवहार चालणार. झालाच तर मध, हिरडे, कित्येक प्रकारची औषधे, मुळ्या याही रानातूनच गोळा करव्या लागणार.
याप्रमाणे प्रत्येक गावाला त्याचा स्वतः च्या जंगलाची गरज भासते. म्हणून चंदर, गावठाण वसवणे म्हणजे काही फक्त चाळीस घरे बाधणे नव्हे. तर त्या सोबत सर्व व्यवसायांसाठी लागणा-या मोकळ्या जागा हव्यात त्यांच्या पलीकडे शेतजमीन हवी. त्यापलीकडे चराऊ कुरण. शक्य असेल तर माळरान हेही हवेत. त्याच्या पलीकडे गावाच्या मालकीच जंगल पण हवं.
आणि जंगलापलीकडे काय असते आजोबा?
गावाच्या जंगलापलीकडे मोठ देवाच जंगल असतं- प्रकृतीच जंगल! त्यावर कुण्या गावाची मालकी असत नाही. तिथे जंगली जनावरे असणार- त्याना राहण्यासाठी ते देवाचे जंगल. तिथे डोंगर असणार, झरे असणार, मोठमोठे व़ृक्ष वाढणार. त्यांच्यामुळे ढग बरसणार, ते पाणी डोंगरावर पडेल आणि तेथुन खाली उतरतांना सोबत कित्येक झाडांनी त्याच्या मुळांत निर्माण केलेली औषधी द्रव्ये घेउन उतरणार. असे ते चवदार व आरोग्य वर्द्धक पाणी नद्यांमधुन आपल्याकडे येते. हे देवाचे जंगल आहे म्हणून आपल्याला चवदार पाणी मिळते. ते नसेल तर पाण्याची चव संपून जाईल.
पण आता तर त्या डोगरांगांवर झाड दिसत नाहीत. किती तरी डोंगर उघडे - बोडके असतात. पावसाळ्यात जी काही हिरवळ असेल तेव्हडीचं. मग औषधी गुणांचे, चवदार पाणी कसे मिळणार? काही तरी करायला हवे. डोंगरावर पुन्हा जाऊन झाडे लावायला हवीत.
सूर्य हळूहळू वर येवू लागला होता. चंदरचे पाय नकळतच घरात जाण्यासाठी वळले.
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धनगर समाजाचे आयुष्य खडतर. भटकण्याचे शेती नाही. पण रोजचा व्यवहार मुक्या जनावरांशी. वर्षभर मेंढ्याना रानात चरायला न्यायचे. शिवाय वर्षातुन (एकदा की दोनदा?) लांब-लांबच्या गावी फिरस्त्तिवर न्यायचे (का? खाणे नसते म्हणून कि मेंढ्या बसवण्याचे पैसे असावेत म्हणून की मेंढरांना व्यायाम हवा म्हणून?) फिरस्ती आणि लोकरीचे  yield यात कांय संबंध? मेंढ्यांची लोकर काढायाची प्रोसेस कांय? वर्षातून एकदा कितीदा? कोवळ्या मेंढराची वेगळी लोकर असते का? त्या लोकरीची कताई कशी? घोगड्या कश्या विणतात ? न विणता प्रेस करुन वर त्यात चिचोंळी घालून जो प्रकार बनतो तो काय? त्यांचे रंगाचे वापर कोणते ? लोकर रंगवणारे आणि कापड रंगवणारे वेगळे असतात काय?
आपला धनगर समाज कुठे कुठे आहे? त्याचे एकवटलेले Population कुठे? त्याचे फिरतीचे Routes कोण कोणते? प.महाराष्ट्र, कोकण, खानदेश, मराठवाडा, विदर्भ? एकूण लोकर उत्पादन किती? देशात अजून कुठे कुठे? किती? धनगरी कुत्रे? धनगरी ओव्या ? त्याखेरीज त्यांच्या लोककला कोणत्या? धनगरांना आरक्षण आहे का?  कोणते - किती? धनगरी आयुष्यावर लिहील्या गेलेल्या कथा कादंब-या ? जेजूरी आणि धनगराचा कांय संबंध?
जगात धनगरांचे कांय वैशिष्ठ्य? भारताबाहेरील धनगर समाजात एकूण लोकर प्रोडक्शन किती? Methods? धनगरांचे इतर Cultural Trends काय?
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गेले आठ- दहा दिवस गव्हाणे गुरूजी गडबडीत होते. शासनाच्या एका प्रमोशनल फिल्मचे शुटिंग करण्यासाठी त्यांची शाळा निवडलेली होती. विषयही त्यांना समजावून दिला होता. जेमतेम चाळीस ते साठ सेकंदाची फिल्म. पण त्याचे फुटेज मात्र मोठे द्यावे लागते. सुमारे १० मिनीटे- मग त्यातून एडीट करत करत २ मिनीटाचा  रफ कट करायचा आणि त्यातुन ४० सेकंदाची फिल्म फायनल करायची. स्क्रिप्ट कुणीतरी अडाणी माणसाने लिहील्यासारखी वाटू नये  म्हणून त्यांनाच त्यांच्याच शब्दात स्क्रिप्ट लिहून ठेवण्यास सांगितले होते. त्यात नंतर ते लोक हवे ते बदल करणार होते.
देशात सगळीकडेचं शालेय मुलांचे गळतीचे प्रमाण खूप आहे. मग अशी मुली-मुले पुढील शिक्षणापासुन वंचीत राहतात. यांना शाळेत परत कसे आणणार? कसे शिकवणार?  एका शिक्षित व्यक्तीने एका शाळा सोडलेल्या मुली-मुलाला शिकविले तर शिक्षणातला हा खड्डा भरुन निघेल. तर मग शिक्षित व्यक्तींना कसे बरे प्रवृत्त करावे? यासाठी त्यांनी निरनिराळ्या तीन चार पध्दतींनी स्क्रिप्ट लिहावी असे सुचविण्यात आले होते. शुटींग टिम आल्यानंतर त्यांचा खास स्क्रिप्ट रायटर त्यावरून स्क्रिप्ट फायनल करणार होता. त्यानुसार गव्हाणे गुरुजींनी तीन चार पध्दतीने त्यांचे विचार मांडून ठेवले होते. पण त्यांचे समाधान होत नव्हते. आताही मुख्याध्यापकांच्या खुर्चीत बसून त्यांचे विचार तिकडेच वळत होते.
शाळा सुटल्याची घंटी वाजली तसे ते भानावर आले. त्याचा विश्वासू शिपाई मन्या आत येऊन त्यांची बँग भरण्याला मदत करु लागला. उद्या येणा-या फिल्मी पाहुण्यांसाठी मुख्य मुख्य सूचनांची गुरुजीनी पुन्हा उजळणी केली.  कुणा कुणावर काय जबाबदारी टाकली आहे. ते मन्याला समजाऊन दिले.  आणि बॅग हातात घेउन ते बाहेर पडले. पण आज त्यांची पावले घराकडे वळली नाहीत. जणू पावलानाही कळले होते की  आज मेंदूला काहीतरी वगळे खाद्य हवे आहे- वेगळे विचार सुचायला हवे आहेत.
शाळेबाहेरचा आठवडा बाजारातली गर्दी ओसरु लागली होती. गावोगावचे विक्रीसाठी आलेले उत्पादक आणि इतर विक्रेते आपापली माल गुडाळू लागले होते. आज मंगळवार, म्हणजे त्यांना उसंत नाहीच. उद्या मोठ्या गावच्या आठवडा बाजारात तर परवा अजून पुढच्या कुठल्या तरी गावात. फक्त एक दिवस काय तो बाजूला ठेवायचा. त्या दिवशी इतर सहा दिवसांचे हिशेब पूर्ण करायचे.   विक्री झालेल्या मालाच्या जागी दुसरा माल भरायचा. जे स्वतः शेतकरी होते त्यांनी घराला वर्षभर लागणारे धान्य बाजुला काढलेले असायचे. उरलेले सर्व विकुन टाकायचे. ते विकले जाईपर्यंत त्यांची आठवडा बाजारात वारी. पण शेती व्यतिरिक्त इतर मालाची विक्री करणारेही खूप असतात. - भांडी, कपडे, खेळणी, मिठाई, भाजलेले धान्य, कुरकुरीत खमंग पदार्थ, तेल, कंगवा सारख्या नित्योपयोगी वस्तू, ड्रेस इत्यादी. शिवाय खरेदी करण्यासाठी आलेले बाळगोपाळही असत. त्यांच्या तोंडाला पाणी सुटुन त्यांनी वडीलधा-यांकडे लकडा लावावा असेही पदार्थ असतात. गुळपापडी, शेवेच्या गाठी, उसाचे गु-हाळ, गरमगरम भजी, मडक्यात थंड केलेली कुल्फी मलाई, एक ना दोन. त्या विक्रेत्यांसाठी गव्हाणे गुरूजी म्हणजे कोण मोठा माणूस. काहींची मुलेही येउन जाऊन इथल्या शाळेत शिकत.
त्या सर्वांचे नमस्कार घेत घेत गुरूजी गावाबाहेरील शेतीच्या दिशेने चालू लागले. शाळेच्या पटांगणापासुन जाणारा हमरस्ता ओलांडून पलीकडे गेले की, शेताशेतातून जाणारी पायवाट लागत होती. दोन्ही कडेला बाभळी पसरलेल्या होत्या. गरजेच्या वेळी सरपणाला काट्या-कुट्या वापरता याव्यात म्हणून शेतीच्या बांधावर लावायच्या झाडांमध्ये पहिली पसंती बाभळीला. पण मधुनच एखाद्याच्या शेतात चिंच, आंबा, कडुलिंब, शिशम, करंज यासारखी दीर्घ आयुष्य लाभलेली झाडे दिसत. मध्येच एखादे न कसलेले रान असायचे. तिथे भेंड्याची झाड आणि त-हेत-हेची निरुपयोगी झुडुप उगवलेली असत. पण या तण म्हटल्या जाणा-या झुडुप आणि गवताच्या प्रजातीमधून पुढील पिढ्यांसाठी योग्य अशा औषधी व धान्याच्या प्रजाती तयार होतात असा काहीसा सिद्धांत गुरुजींनी वाचलेला होता. म्हणजे असेच म्हणायला हवे की जो भूप्रदेश जैविक विविधतेने अधिक समृध्द असेल, बिनशेतीचे तणांचे माळरानही जिथे असेल, तिथल्याच पुढल्या पिढ्यांना अन्न आणि स्वास्थ्यलाभ जास्त. चिरंतनतेच्या दिशेने सृष्टीने टाकलेले ते पाऊलच म्हणायचे. मुलांना शेतीच्या तासाला हेही शिकवायला हवे. ती फिल्म वाली मंडळी या विषयावरही छान फिल्म काढू शकतील. लिहावी का या नव्या विषयावर एक स्क्रिप्ट? गुरूजींना हसू आले. गेल्या चार दिवसातच या स्क्रिप्ट रायटरच्या नव्या भूमिकेने त्यांना एवढे भाराऊन सोडले की काय?
पायवाटेने एक छानसे वळण डाव्या बाजुला घेतले होते. अचानक गुरूजींच्या समोर मेंढ्याचा कळप येऊन भिडला. साठ- सत्तर मेंढ्या, मागे दोन कुत्रे, सर्वांच्या मागे चंदर नाणेगावचा.  गव्हाणे गुरुजींनी त्याला ओळखले. गेल्या वर्षी तो याच मोसमात गावात आपल्या मेंढ्या घेऊन आला होता. त्या वेळी गावातील तीन शेतक-यांच्या जमिनीत त्याने मेंढ्या बसवल्या होत्या. ते त्याचं आपल्या गावातील पहिलं वर्ष म्हणायचं.
"राम राम गुरूजी" चंदरने ही त्यांना ओळखलं होतं, आणि दुरूनच हाकारा दिला होता.
राम राम, कसा आहेस चंदर? आणि गावाकडे कधी आलास?
हा काय आत्ताच येउन राहीलो. गेल्या वर्षी तुमच्या गावचा चांगला अनुभव होता, म्हणून या वर्षी पुन्ह्यांदा आलो.
आणि बरोबर हा छोटा पोरगा कोण?



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शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

फणीश्वरनाथ रेणु अंतर्नाद ऑक्टोबर २००१

1 Dec 2000
फणीश्वरनाथ रेणू
(जन्म १९२९ , मृत्यू १९७७)
नित्यलीला चा लेखक
                          
                अंतर्नादच्या १९९७ च्या दिवाळी अंकात मी अनूवाद   केलेली 'नित्यलीला' ही कथा  प्रसिद्ध  झाली,  तेव्हापासून  माझ्या  मनात होते, की  कधीतरी  या कथेच्या  लेखकाचा परिचय  मराठी वाचकांना करून दिला पाहिजे . लेखक   म्हणजे पद्यश्री फणीश्वरनाथ रेणू. हिंदी साहित्यजगातले एक महत्तवाचे नाव.
            खरे तर फणीश्वरनाथ रेणू यांचा परिचय  मराठी वाचकाला अजिबात असणार  नाही,  असे नाही,  राज कपूरची  प्रसिद्ध फिल्म 'तिसरी कसम ' चे कथा लेखक  रेणू  होते.  पण  हे फार कदाचित  फार कमी  लोकांना माहित असणार. कारण  भारतीय  फिम्मजगतात कथालेखकाला फारसे मानाचे स्थान दिले जात नाही, गाजावाजा तर फारसा  होतच नाही. शिवाय मुंबई -पुणे   यांच्यासारख्या  औद्योगिक वातावरणातल्या  वाचकाला (किंवा  सिनेमा प्रक्षेकाला)  'तिसरी कसम " मधले  खास  "गावाकडचे " वातावरण - ते देखील बिहारमधल्या मिथिलासारख्या पक्क्या ग्रामीण  भागातले  वातावरण -समजेल  किंवा भावेल,  असेही नाही.माझ्या  माहितीप्रमाणे फणीश्वरनाथांच्या कथा, कादंब-या किंवा  कवितांचा मराठीत अनुवादही झालेला नाही. हिंदी साहित्य जगात मात्र त्यांना  अत्यंत मानाचे स्थान असून  त्यांची  गाजलेली कादंबरी  "मैला आंचल " ही  प्रेमचंदांच्या 'गोदान'  नंतरची  त्या  तोडीची अस्सल ग्रामीण  कादंबरी  मानली  जाते.  भारतीय ग्रामीण  पार्श्वभूमीचे  चित्रण  अत्यंत समर्थपणे त्यांच्या  साहित्यामध्ये  दिसून  येते.
          बिहारमधील उत्तर -पूर्व टोकावरचा अररिया जिल्हा. त्या  काळात हा पूर्णिया या मोठ्या जिल्ह्याचा एक भाग होता.  उत्तरेला  लागून  नेपाळचा विराटनगर हा जिल्हा, तर पुर्वेकडे लागून  बंगाल.  पूर्णिया जिल्ह्याची भाषा मैथिली.
          फक्त अठ्ठेचाळीस वर्षांचे आय़ुष्य  लाभलेल्या  रेणू  यांनी  आपल्या  जीवनकाळात दोन कादंब-या , पाच,  लघू-कादंब-या, साठ-सत्तर कथा, शंभराच्या  आसपास रिपोर्टस आणि पन्नास  व्यक्तिचित्रे   लिहिली . थोड्याफार कविता लिहिल्या , काही इतर  छोटी-मोठी पत्रे, गोष्टी , निबंध वगैरे लिहिले.
         पण या सर्वांपेक्षा विशेष म्हणजे विराटनगरच्या कोईराला परिवाराबरोबर त्यांचे  घनिष्ठ  संबंध  होते. लहानपणी घरातून पळून  जाऊन  ते  कोईरालांकडे  राहिले होते.  त्याच बांधवांबरोबर बनारसला येऊन त्यांनी  कॉलेजशिक्षण घेतले. साम्यवाद आणि  समाजवाद शिकले, बेचाळीसच्या  आंदोलनात भाग घेतला. त्याआधी त्यांचा विराटनगरमधील जूट  मिल्स  आणि कॉटन मिल्स  युनियनच्या  संघटनेत  आणि क्रांतीत  सहभाग  होता.  तसाच पुढे  १९५१ साली नेपाळच्या प्रजातंत्राची  स्थापना झाली,  त्या सशस्त्र क्रांतीतही त्यांनी  भाग घेतला. एकीकडे  सशस्त्र हल्ल्यांमध्ये  भाग घेणे , दुसरीकडे  रेडिओ  ट्रान्समिशनची जबाबदारी संभाळणे  आणि  त्यांचे  रिपोर्टिंगदेखील  बिहारमधल्या  वर्तमानपत्रांतून करणे, या  सगळ्यांमुळे  त्यांना  क्रांतीचे  वाल्टेयर म्हटले  जाते. नेपाळमध्ये  प्रजातंत्राची स्थापना झाल्यानंतर  रेणू  पुढे पूर्णिया आणि पटना  येथेच राहिले. एव्हाना समाजवाद्यांबाबत त्यांचा मनोभंग  झाला, होता. ते पूर्ण  लेखनाकडे वळले. मात्र आणिबाणी लागू झाली.  तसे ते  पुन्हा एकदा अस्वस्थ झाले आणि जयप्रकाश नारायण यांच्याबरोबर त्यांनी बिहारच्या  छात्र आंदोलनात भाग  घेऊन  कैदही भोगली.  या काळात त्यांनी  पद्यश्री हा सन्मान आणि  स्वतंत्र्यसैनिक पेन्शनही सरकारला परत केले. पुढे निवडणुका झाल्या . जनता सरकार  आले.  पंतप्रधानांच्या  निवडीच्या मानापमानाचे नाटक  झाले. त्याच दिवशी सकाळी  त्यांनी  स्वतःच्या ऑपरेशनसाठी  परवानगी  दिली होती. आधी तीन महिन्यांपासून  चाललेल्या डॉक्टरांच्या आग्रहाला ते नाकारत होते.  निवडणुकिचा  निकाल त्यांना पाहायचा होता. मात्र ऑपरेशन टेबलावरूनच ते उठलेच नाहीत. काही दिवस बेशुद्धावस्थेत राहून  त्यातच  त्यांची  जीवनलीला संपली.
            अशा त-हेचे अनुभवसमृद्ध जीवन ज्याचे  असेल, जो स्वतः शेतकरीही असेल, किंबहुना शेती हेच  त्याच्या  भाजी-भाकरीचे  साधन असेल, पण तरीही जो एक  संवेदनशील लेखक , एक आदर्शवाही , एक  विद्रोही  आणि रामकृष्ण परमहंसांचा भक्त असेल, अशा  लेखकाचे लेखन काय तोडीचे आणि कशा  प्रकारचे असेल,  याचा  आपल्याला अंदाज येऊ शकतो.
            रेणूंच्या कथांची पात्रे सगळी  त्यांच्या  रोजच्या वावरायच्या  समाजातली, त्यांच्या  व इतरांच्याही  परिचयाची अशी  असत. इतकी की,  त्यांची नवीन गोष्ट  किंवा कादंबरी प्रसिद्ध  झाल्यावर  लोक एखाद्या व्यक्तीकडे  बोट दाखवून म्हणत- 'रेणूंच्या अमक्या कथेतला तो अमूक  ना! तो हा! त्यामुळे  त्यांच्या  साहित्यातून एका परीने  बिहारमधल्या दारिद्रयाने उलगडला जातो आणि आपण  म्हणून जातो.- 'हे  कदाचित आपल्या जवळपास कुठे  भोर , कुठे  पिंपरी   खुर्दमध्येही घडलेले असू  शकते.'
             साहित्यिक फणीश्वरनाथ रेणू  यांचे  मूल्यांकन ब-याच  इतर साहित्यिकांनी केले . बोकारो येथील भारत यायावर यांनी  एकंदर पाच खंडात त्यांचे  समग्र  साहित्य  संकलित करण्याचा प्रयत्न  केला आणि 'राजकमल ' या हिंदीतील अग्रणी  प्रकाशम संस्थेने हे खंड प्रकाशित  केले . तरीपण  त्यांचे  काही  लेखन अजूनही अप्रकाशित किंवा आता दुर्मिळ  झालेले असल्याने ते या  खंडात येऊ  शकले नाही.  इतरांनीही त्यांच्या  साहित्याबद्दल  बरेच  काही लिहिले . पण एक  राजकारणी किंवा  समाजकारणी  व्यक्ती  म्हणून रेणू  यांच्या जीवनाबाबात फारसे कुणी  लिहिलेले दिसत  नाही.  त्या अर्थाने त्यांचे  मुल्यमापन  राहून  गेलेले आहे. हे मी  भारत  यायावर तसेच फणीश्वरनाथ यांचे  चिरंजीव  पद्यपराग  रेणू  यांच्याकडे  बोलूनही  दाखवेल. पण  असले  लेखन  करायला  अशी  व्यक्ती  हवी की,  जिची स्वतःची  सामाजिक व राजकीय विवेचनाची   जाण प्रगल्भ  असेल. हिंदी लेखकजगाला माझे  हे म्हणणे कितपत रुचेल कुणास ठाऊक!                     -लीना मेहेंदळे -- अंतर्नाद ऑक्टोबर २००१  
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शनिवार, 17 जनवरी 2015

खिंडिच्या पलिकडे -- भाषांतर करतांना (अपूर्ण)

28 March 2008- 5 April 2008 (Diary pages)
    मूळ इंग्लिशमधील या कादंबरीचा मराठी अनुवाद करतांना दोन भिन्न भाषांमधील शब्द वैशिष्ट्यांचा वेगळेपणा जाणवतो. त्याच बरोबर लेखकाचे इंग्रजी भाषेवरील प्रभुत्व देखील लक्षांत येते. त्यांनी चार शब्दांचा जसा चपखल उपयोग केला आहे तसा तो मराठीत उतरवणे खूप अवघड होते. आम्ही दोघे मिळून या कादंबरीचा हिन्दी अनुवाद करायचे ठरले तेंव्हा देखील मी त्यांना या शब्दांविषयी बजावून ठेवले आहे. Questioning, knowing, game playing, आणि nothing हे ते चार शब्द.
     “Mother always encouraged me to ask questions. “ Children should ask, That is how they learn.” She said. But I was not asking questions, I was questioning. I was questioning their answers.
     यातील पहिले question हे माहिती करून घेण्यासाठी आहे तर दुसरे विद्रोहाच्या धाटणीवर आहे.
    Understand आणि know हे असेच दोन समानार्थी शब्द. कादंबरीत पराशर यांनी understand हा शब्द  खोलात खोलात शिरत माहिती घेणे या अर्थाने वापरला तर know हा शब्द खोलात न शिरताच जाणीवेत उतरणे या अर्थाने वापरला आहे. त्यांच्यासाठी मला मराठीत समजणे व उमजणे असे दोन वेगळ्या छटा असलेले शब्द योग्य वाटले.
     एखाद्या गोष्टीसाठी आपण कुठलेही प्रयत्न मागे ठेवले नाहीत असा अर्थ हवा असेल तर इंग्रजीत आपण म्हणू Did not spare any TIME to understand किंवा TIME च्या जागी आपण EFFORTS, MONEY या सारखे शब्द वापरू. पण पराशर यांनी एक फार सुंदर वाक्य रचना वापरली आहे- Naturally, he did not spare space for understanding things like time. But he knew when it was time to go. Like the birds. They do not keep watches and calendars. But they know when it is time to go.
     पराशर यांनी अशाच प्रकारचे शब्द कौशल्य games बाबत वापरले आहे. “Did the travellers play any games of their own - now that they did not have to play games of referees?” या प्रश्नाला म्हातारा आजोबा उत्तर देतो. “Did they! I did not see them. In any case, why would anyone who is happy, play games?”
     या शेवटच्या ओळीत play games या शब्दामधे छळ-कपट, जिंकणे-हरणे, असूया इत्यादी सर्व भाव समाविष्ट आहेत. यांचे मराठी अनुवाद करतांना नेमके शब्द पकडणे कठिण होते.
     लेखकाने सर्वांत जास्त मजा केली आहे nothing या शब्दाबरोबर.
    In the valley of peace, people do not play any games. But they play. Some play with water, some with wind. Some play with clouds, and rainbows and birds and animals. Some play with nothing.
    अशा प्रकारे nothing या शब्दाला एक व्याक्तिमत्व वहाल केल.
    मुलगा विचारतो-
    “With nothing! How do you play with nothing? What is nothing?”
    “Nothing is the only thing you have everywhere at all times. But it will be sometime before you know about it. When travellers are playing, no one knows. So playing is sort of invisible- like nothing… Travellers become particles, of dust, of water, of air. They become free sounds, they become thoughts. They are on way to becoming nothing.”
     This nothing was turning to be mysterious something to attain and I would not know yet. But my mother used it to show disdain- “You just sit there doing nothing, just brooding all the time- this way you would grow up to be nothing. Look at the boys of your age they are on way to become something.
     अशा प्रसंगी पुष्कळदा मी अनुभवला की पराशर यांचे तत्वज्ञान समजणे एक वेळ सोपे, पण त्यांच्या शब्दांना मराठीत मार्मिक शब्द निवडणे फार कठिण आणि अनुवाद करतांना एखादा शब्द किंवा कल्पना फार फैलावून लिहिण्यात कांही मजा नसते.
     या कादंबरीतील तत्वज्ञान पाहिले तर सोपेच आहे. माणसाने स्वतःला बिल्ले लावून घ्यायची गरज नाही- काम्पिटीशन टाळणे सहज शक्य आहे. नेहमी जय- पराजयासाठीच खेळायची गरज आहे कां? लहान मुलांनी मोठेपणी काय व्हाव हे ठरवतांना त्या मुलांच्या मताला किंमत असावी की नाही?
    पण खरे तर त्यांचे तत्वज्ञान एवढेही मोठे  नाही. याहूनही सोपे आहे -माणसाने मुक्त असावे- मुक्त बागडावे- आपल्या विचारांना मुक्त ठेवावे- बस!  आणि अशा प्रकारे आपल्या आयुष्याचा प्रवास वेगवेगळ्या द-या आणि खिंडीतून होत असतांना आपण मुक्त होतो तेंव्हा शेवटची खिंड ओलांडतो.
     पण प्रवास तिथे संपत नाही. तर मग “त्या” प्रवासात कांय असते? याचे उत्तर वाचकावर सोपवले होते.
मला ईशावस्योपनिबदामधला एक श्लोक आठवतो-
विद्यांच अविद्यांच यस्तद्वेदोsभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाsमृतमश्नुते ।।
     याचा मला कळलेला अर्थ असा- अविद्येच्या जोरावर मृत्युला पार केल्यानंतर पुढील प्रवासात विद्येंच्या साथीने तुम्हाला अमृतत्वापर्यंत जाता येते. थोडक्यांत मृत्युला पार जाणे म्हणजे अमृतत्व नसून मृत्युला तरूण जाणे ही फक्त नव्या प्रवासाची सुरुवात आहे- अमृतत्वाचा टप्पा- अजूनही खूप पुढे आहे.
      पण पराशर यांच्याबरोबर ही चर्चा केलेली नाही- कारण ते म्हणणार पहा, स्वतःला कांय जाणवले त्याचे महत्व न मानता तुम्ही पुनः एकदा पूर्वापार आलेल्या उपनिषदांना उद्धृत करता!
     खिंडीच्या पलीकडे ही कादंबरी नाशिक लोकमत च्या दिवाळी .... च्या अंकात येऊन गेलेली आहे. त्यासाठी अपर्णा वेलणकर यांचे आभार. आता ही पुस्तक रूपाने प्रसिध्द होत आहे. त्यासाठी इंडिया प्रिंट चे योगेश पालकर यांनी विशेष मेहनत घेतली. तसेच मुखपृष्ठ  व आतली चित्रे काढणा-या श्री मुधोळकर व श्री ... यांची मी आभारी आहे. माझी मैत्रिण रोहिणी कुळकर्णी यांनी सुंदर रसग्रहणात्मक प्रतिसाद लिहून दिला त्याबद्दल त्यांचेही आभार. माझी मुले आदित्य, हृषीकेश. बहिणीचा मुलगा क्षितिज आणि भावची मुलगी सृष्टी यांनी माझ्या आग्रहावरून ही कादंबरी वाचली व नंतर मलाच तिची एवढी भरभरून वर्णन ऐकवली जणू कांही त्यांच्याच आग्रहावरून मी कादंबरी वाचली. पण त्यामुळेच मी कादंबरीचा मराठी अनुवाद करायचे ठरवले. म्हणून त्यांचेही आभार.
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