ले. मधुकर धर्मापुरीकर
अनुवाद लीना मेहेंदले
कथादेश, हंस
लिपी
नखरे और लय भरी रेखाओं
से एक एक अक्षर उभरने लगा।
शब्द आगे आए । एक एक मोड के
चढाव -
उतार से गुजरती
हुई लिपी ने शब्दों की भाव छटा
दिखाई। जपानीं कला में कागज
को निसमबध्द मोड देकर उससे
फूल उभारा जाता है। कुछ उसी
तरह यह लिपी मुडी,
चटी,
उतरी और एक शेर
उभर आया-
‘जोश’ अब तो शबाब की बातें -
ऐसा लगता है जैसे अफवा हो।
शब्द- शब्द से प्रकार हुए अर्थ ने अपना जादू जमाया और आशय की भवानुभूती में उसे भींगोकर लिपी दूर हट गई। वह थरी गया। सुबह की ठंडक में उसपर गर्मी छा गई । बदन पर लोपटी हुई शाल फिसल कर नीचे आगिरी। उसके मुँह से आनायाल निकली- वाह। वाह री ऊर्दू- लिपी।
यों देवनागरी लिपी की किताबों में बसे शेर उसने कई - बार पढे थे। और तभी से उसके मन ने ऊर्दू शायरी को दाद दी थी वाह। शायरी लाजबाब है। लेकिन इधर - उस पर शौक चढा था ऊर्दू लिपी- पढने का। अक्षर -अक्षर मिलाकर पढना और वह भी -उस लिपी के तमाम नजाकत से भरपूर
मोडों और बिन्दियों से गुजरते हुए। यह देवनागरी की तरह सीधी सरल नही- बल्कि नटखट , उछलकूद से भरपूर लिपी थी। एक एक अक्षर मिलाकर , कई जगह अटक कर सात आठ मिनट में जो एक शेर पढा जा सकता था - उसका जादू कुछ और भी गहरा जाता था।
और तब यदिं कोई ऐसा
शेंर मिल जाय जैसा यह जोश साहब
का था -
तो फिर उस दीवानगरी
का क्या कहना। मानों किसी
पडदानशी के आकर गलबईयाँ डाल
दी हों। वाह !
बहुत दिनों के बाद यह ऊर्दू शेर की किताब उसके हाथ लगी थी। पिछले दो दिनों से यही सिलसिला शुरु हो गया था। वह एक एक अक्षर जुटाता और फिर शेंर धीमे धीमे ऐसे उभारता था जैसे दीवाली पर कोई फुलझडी - दाएँ से बाएँ धीमे धीमें रोशनी के फूल बिखेरती - चली जा रही हो। कॉलेज के दिनों में बडे शौक से सीखी यह - लिपी आज अचानक ही सामने आ गई थी। वरना तो शादी , घरबार , नोकरी की भागदौड में उससे मिलना कहाँ हो पाता था। जोश साहब की तरह वह भी उन दिनों से इतना दूर आ गया था कि अब वे दिन , वह उमंग , वह शर्तिया सीखी हुई लिपी सब अफसाना ही तो बन कर रह गए थे। अब यह ऊर्दू लिपी ऐसे मिलती है - जैसे उन दिनों की कोई क्लासमेट जिस गगपर दिल आ गया हो। वह अचानक बाजार में मिल जाय। हँसकर हालचाल का पता और चल दे। या फिर पूछ ले कि भाभी कैसी है- और इस प्रकार आकाश से धरातल पर पटके।
तुमने जिलानी को दे दिया अप्लीकेशन? उसमे थोड़ा सा चिढ़कर ही पूछ लिया। हाँ वह बोला - दे दो बाई, मैं जानेवाला हूँ, उस तरफ दे दूँगा तुम्हारी प्रिंसिपल को। वह जाता रहता है उधर, मुझे मालूम है। 'कैसी मूरख हो तुम?' वह करीब-करीब चिल्ला पड़ा।
क्यों क्या हो गया? वाइफ का चेहरा फीका पड़ गया। वह भला आदमी है। 'नही है।' उसका चिल्लाना अब भी कम नही हुआ था।' कोई भी औचित्य का ज्ञान नही हैं तुम्हें। एक सब्जी बेचने वाला स्कूल में जाये, कैसा नजारा है।'
वाइफ समझ नही पाई। दिन के रुटीन कामों में क्या नजारा और क्या नजरिया? नहा-धो कर, बिंदी लगाकर खिला-खिला उसका चेहरा मुरझाने लगा। वह बोली - ' छोड़ो मैं स्कूल ही चली जाती हूँ।
रजाई फैंक कर वह बिस्तर से नीचे उतर आया।
'नही, स्कूल मत जाना'।
अब क्या करना है, यह प्रश्न खड़ा हो गया। आलस भरे उसके मन पर बेचैनी आ गई। वाइफ ने फिर से चप्पलें पहन सी थी, कहाँ जाती हो?
लेकिन तब तक वह निकल चुकी थी। हताश होकर वह पलंग पर बैठ गया। सच, इसे कभी मेरा नजरिया नही समझ आयेगा। अरे, जरा सोचो, वह जिलानी स्कूल जायेगा। एक ढीला सा पायजामा पहने, जिसका नाडा शायद लटक रहा हो, कुर्ते पर जाकेट और वह उसकी ----- टोपी। पहले सब्जी मंडी जायगा फिर स्कूल - उसकी कोहनी में कपड़ों पर मिट्टी के धब्बे लगें होंगे। उसकी नजरों के सामने एक दृश्य तैरने लगा। सिर पर से सब्जी की टोकरी नीचे उतार कर जिलानी - प्रिंसिपल को पुकारेगा - मैडम, फिर टोपी के नीचे से अर्जी निकाल कर कहेगा - यह पूज्य बाई का अप्लीकेशन है - दरख्वास्त - छीः । यह कोई तरीका है लीव-अप्लीकेशन देने का। उसने अपना सर खुजलाया। दुबारा रजाई ओढ़कर, किताब लेकर बैठ गया। लेकिन शेर का नशा अब नही चढ़ सकता था। तभी वाइफ अंदर आई। चप्पलें उतारती हुई बोली - जाकर ले लिया वापस जिलानी से अपना अप्लीकेशन। बहुत अच्छा किया। क्या कहा उसने? खुश होते हुए उसना न किये को ठीक कर लिया। कुछ नही कहा। वहाँ गई तो काबरा मैड़म वहीं खड़ी थी। सिधी बस नही मिली तो ऑटो से जा रही थी। मैनें अर्जी जिलाने से ले ली और झट से उनके हाथ में दे दी। अब प्रेयर असेम्बली से पहले प्रिंसिपल के पास पहुँच जायगी। जिलानी के पास रहता तो दस बजें ही पहुँच पाती।
वाइफ के शब्दों में उत्साह था। अर्जी के देर से भेजने का टेन्शन सर से उतर गया था।
वह हंस पड़ा। चेहरे की शिकन और कपाल पर पड़ी सिलवटें छिटक कर मुसकान में बदल गई। वाइफ की बिंदी में वह उर्दू लिपी के नुकसे ढूंढने लगा।
फिर एक झटके में उछकर बैठते हुए उसने किताब का पन्ना खोला। वहाँ मेहंदी जैसी नक्काशी में शैर था। हर शैर को सवारा मैनें, वो मेरी जुल्फ की खता रह गई। वाह ! फिर से चिल्ला कर उसने पूछा - सुनो, उब बच्चे चार बजे तक तो स्कूल से नही लौटेंगे ना?
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