शुक्रवार, 14 मार्च 2008

एक शहर मर गया ।

एक शहर मर गया ।
-- लीना मेहेंदले
सोलहवीं सदीने अंगडाई ली। उसकी नजर पडी सह्याद्रीके जंगलकी एक बस्तीपर। सदीने कहा-- आनेवाले दिनोंमें यहाँ कुछ नया होगा।
बस्तीसे पूरब एक घना जंगल था। पश्च्िामकी तरफ थे खेत। वहाँ अधिकतर बाजरा, थोडी अरहर, कभी चना, कभी तिल उगाया जाता था। मेडोंपर किसीने आम, किसीने इमली, किसीने सागवान और किसीने बबूल-नीम लगा रखे थे। लेकिन उन पर पूरी बस्तीका सांझा माना जाता था। जिसे घरमें चटनीके लिये इमली चाहिये हो, रमई काकाके मेंडसे उठा लाये, जिसे नीमका दातुन करना हो, आगे पसीरा चाचीके खेतमें चला जाये। सब्जीयाँ और फूल खेतमें नही उगाये जाते थे। बस्तीके हर घरके अगल बगल ये लगे हुए थे और उनपर भी गांवका सांझा माना जाता था।
बस्तीकी असल संपत्त्िा तो जंगल थी। खास कर बढई और चर्मकारोंके लिये। खेतके लिये हल बनना है या घरमें बिछानेके लिये चारपाई, तो जंगलसे लकडी लाकर ये काम संपन्न होते। मरे जानवरकी खालको हर्रेके पानीसे धोधोकर तैयार किया जाता। वे हर्रे भी जंगलमें ही थे। बस्तीके चर्मकार भी चर्मकार नही, कलाकार थे। उनके बनाये चप्पलोंकी खरीदारीके लिये दूर-दूरसे व्यापारी आते थे। हरिया चर्मकारको चार कोस दूर देशके राजाने अपने दरबारमें बुलाकर खास सम्मान किया था। तब हरियाकी उमर रही होगी पच्चीस-सताईस वर्ष। राजाने पूछा था- चप्पलोंपर इतनी मेहनत, इतनी कशीदाकारी कैसे करते हो? तुम्हारी चप्पलें इतनी मुलायम हैं मानों कोई हल्के गरम कपडेसे पैरोंको धीरे धीरे दबा रहा हो। यह कला कहाँ सीखी? हरियाने एक पल आंखें मूंदी तो जंगल नाच उठा था आंखोंके सामने। हरियाने उत्तर दिया- महाराज, हमारे जंगलमें हर्रेके पेड हैं। उनके पास हम रोज जाते हैं। वही हमें सिखाते हैं कि चमडेको कैसे नर्म मुलायम बनाया जाय। राजाने कहा- तो ध्यान रहे कि तुम्हारा जंगल सदा हरियाला रहे।
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इस बातको हुए बीस पावस ऋतु बीत गए हैं। आज हरिया बस्तीके सबसे पुराने आमके नीचे बैठा है। उसने बस्तीको यहाँ इकट्ठा होनेके लिये कहा है। अभी लोगोंके आनेमें देर है। हरिया मन ही मन अपने शब्दोंको उलट-पुलट कर देख रहा है। वह क्या कहना चाहता है? क्या वह खुद ठीकसे समझ रहा है? क्या गांववालोंको समझा पायगा? कि अब बस्तीके लोग बढ रहे हैं। खेतकी फसल कम पड रही है। जंगलसे जो कंद मूल, करौंदे, जाम, महुआ, गूलर आदि आते थे वे भी कम हो रहे थे। ऐसा नहीं कि गांववाले इसे न समझते हों। इसी आमके नीचे बैठ कर यही चर्चा कई बार हो चुकी है। हरिया आज नया क्या कहने वाला है? उसे स्वयं ही पता नही।

गाँववाले जमा हुए तो हरियाने उठकर पहले अपने बूढे बापके और फिर रामधारी बाबाके चरण छुए। अपनी जगह वापस आते आते वे सारे शब्द भूल गए जो उसने इतनी देरसे मनमें रखे थे भूमिकाके लिये। अब बिना किसी भूमिकाके उसने घोषणा की- मैं बस्ती छोडकर जा रहा हूँ। इस गांवकी जमीन, खेत और जंगल अब कम हो रहे हैं। लोग बढ रहे हैं। हमें नई जमीन देखनी होगी, नया गांव बसाना होगा। कौन कौन चलेगा मेरे साथ?
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जानेकी तैयारी पूरी हो चुकी थी। हरियाको ही मुखिया मान लिया गया था। कुल चालीस परिवार जा रहे थे जिसमें तेईस तो चर्मकारोंके ही थे। वे अपने साथ पशु भी ले जा रहे थे। इसका मतलब था कि आने वाले दिनोंमें उन्हें पशुपालन और चरवाहेके काम भी सीखने थे। सात किसान परिवार थे। पांच बढई। बाकी और और लोग।
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रातको मधुकरने हरियाको बुलाया -- मेरी अम्मांने तुमसे मिलनेको कहा है हरिया।
मधुकर गांवका वैद था। उसके पिता कई वर्ष पहले मर चुके थे। अम्माँने ही उसे पाला पोसा था। वैदकीकी सारी बातें उसे सिखाई थी। गांवमें किसीको बुखार हो जाय, सांप-बिच्छू काट ले, गिर कर चोट लगे, सब मधुकरकी अम्माँ से, और अब मधुकरसे पूछते थे। दूर दूरकी बस्तीसे भी लोग पूछने आते थे। कभी अपने बिमार पशुको ले आते थे।
ऐसी मधुकरकी अम्माँने बुलाया है तो जरूर कोई खास बात होगी। हरिया तुरंत उठकर मधुकरके साथ चल पडा।
एक दियेकी लौमें मधुकरकी अम्माँ अपने चारों ओर दवाईकी पोटलियाँ बिछा कर बैठी थी। हरियाके आते ही कहा- हरिया तू बस्तीसे बाहर जाकर दूसरा गांव बसानेकी बात कह रहा है?
हाँ मधुकरकी अम्मां। याद है एक बार अपने गांवमें नट आया था। बता रहा था कि कैसे पछरिया गांवसे कुछ लोग चले गए थे अलग बस्ती बसाने। हमारी बस्ती भी तो ऐसे ही किसीने आकर बसाई होगी। मैं बस्तीसे बाहर जानेकी बात कह रहा हूँ क्यों कि अब अपना जंगल और खेत पूरे नही पड रहे हैं।
तो ठीक है। तुम्हारे लिये ये जडी-बूटियाँ अलग कर रही हूँ। दूसरा गांव बसाएगा तो वहाँके जंगलमें इन्हें ढूँढकर पहचान करनी पडेगी। वरना गाहे-बगाहे बिमार पडो, पशु मरने लगे, तो तुम सब क्या करोगे?
हरियाकी आंखोंके सामने अपने अगले बीस वर्ष कौंध गए। एक दूसरा ही विचार उपजने लगा।
अम्मां, रूक जाओ। ये सारी जडी और लत्तर यहाँ मधुकरके लिये रख दो। तुम भी हमारी टोलीके साथ चलो।

ये तू क्या कह रहा है हरिया? मधुकर अकेला पड जायगा।
नही अम्मां। उसने अपने लिये किसीको ढूँढ लिया है। क्यों रे मधुकर, तेरा कोयलीके साथ नही चल रहा है? फिर तुम दूसरी झोंपडीमें चले जाओगे। अम्मां अकेली हो जाएगी। तो क्यों न हमारे साथ चले? गांवकी वैदकी तू करेगा। हमारी नई बस्तीकी वैदकी अम्मां करेगी।
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जानेकी तैयारीके लिये पंद्रह दिन तय हुए। दूसरे दिन मधुकरकी अम्मां मधुकरको जंगलमें ले गई। वहाँ
पानीके तीन-चार सोते थे। उन्हींमें से एकको पार करके करौंदेके झुण्ड तक आये। उससे बहुत आगे बूढा बरगद था। बीचमें एक अनचिन्हे पौधेका झुरमुट बना हुआ था। उसमें लुभावने पीले फूल लगे थे।

अम्मां झुरमुटके बीचोबीच बैठ गई और बूढे बरगदको हाथ जोडे। फिर मधुकरसे कहने लगी।
सुन, ये पुरानी कहानी है। तब मेरे बाबा जीवित थे और वैदकी करते थे। छोटी वयससे ही मैं उनके साथ जंगलमें आकर जडी बूटी पहचानने लगी थी।
एक बार गांवमें विचित्र महामारी आई। लोगोंके बदन तपते थे, उलटी होती थी, नाक बहने लगती थी। फिर लोग मर जाते। एक एक कर तेईस लोग इसी बिमारीसे मर गए। गाँववाले मेरे बाबाको दुहाई देने लगे।
तब बाबा इस बरगदके पास आए। हाथ जोड कर प्रार्थना की। कहा -- तुम न जाने कितनी पीढियोंको देख चुके हो। उनके रोग और शोक संतापको भी देखा है। तो फिर तुम्हारी वृक्ष जातिके पास जो ज्ञानका भंडार है उसे खोलो और मुझे बताओ कि इस बिमारीपर मैं कौनसा उपाय करूँ। यह महामारी रही तो एक एक करके हमारे सारे लोग मर जायेंगे।
मैं तुम्हारे पास प्रति दिन आऊँगा। तुमसे उपाय पूछने। यह जंगल तुम्हारा है और यह बस्ती भी तुम्हारी है। इसे बचानेका उपाय तुम्हें ढूँढना होगा।
तो तुम्हारे बाबा बरगदके साथ बात कर सकते थे? फिर क्या हुआ? मधुकरने अचरज से पूछा।
बाबा कहते हैं कि उस दिन बरगदने सारे पेडोंसे बात की। यह बिमारी क्या है? हमारे बस्तीके मनुष्योंको क्यों लग रही है? इसका उपाय करनेके लिये किस पेडके पास क्या क्या प्रभावी तंतु हैं?
उस दिन जंगलके सभी पेड पौधोंने अपने अपने ज्ञान भंडारमें झांक कर देखा। किसीके पास पचास वर्षोंका भंडार था तो किसीके पास सौ वर्षोंका। बरगद खुद भी केवल अस्सी नब्बे वर्षका था। लेकिन तब यहाँ एक ढाई सौ वर्ष पुराना पेड था। उसने अपनी परतें पलटकर देखीं। वहाँ कहींपर इस बिमारीकी जानकारी थी। फिर उसी पेडने सुझाया कि किस किस पेड पौधेको अपना कौन कौनसा तंतु देना होगा ताकि एक नई जातिकी पौध उग सके। वही पौध इस बिमारीका उपाय है।
उसके बाद पंद्रह दिनोंमें ही यह झुरमुट उग आया जहाँ हम बैठे हैं। इसीकी टहनीके गूदेसे बाबाने उस भयंकर महामारीका सामना किया था।
मधुकर अवाक् सुन रहा था। अम्माँ बताती रहीं।
तबसे बाबाकी वैदकीकी कथा दूर दूरतक फैल गई। आज भी जो लोग मेरे पास आते हैं वे मुझे बाबा मानकर ही आते हैं।
लेकिन वह महामारी? मैंने तो कभी गाँवमें कोई महामारी नही देखी है। मधुकरने पूछा-
हाँ, वह महामारी फिर नही लौटी। बाबाके या मेरे जीवन कालमें नही लौटी। लेकिन कौन जाने तुम्हारे जीवन कालमें लौट आये। और अब यह हरिया मुझे दूसरी बस्तीमें ले जा रहा है। तो कौन जाने, वहाँ महामारी लौट आये।
लेकिन वहाँके जंगलके पास ये पौधें नही हुए तो? इसीलिये तो तुझे यहाँ लाई हूँ कि थोडेसे बीज यहाँसे इकट्ठे करेंगे। उन्हें मैं नए जंगलमें डाल दूँगी।
अम्माँ, केवल बीज नही डालना। किसीको यह समझा भी देना।
हाँ, रे। अब मुझे उस बस्तीके किसी छोटे मधुकरको तैयार करना पडेगा।
और अम्माँ, वह पुराना पेड कौन सा है जिसने बरगदके कहने पर अपनी परतोंको खोलकर बिमारीकी जानकारी दी थी?
वह पेड भी बाबाने मुझे दिखाया था। लेकिन लगता है कि उसका कोई नाता बाबासे जुड गया होगा। बाबाकी मृत्युके बाद मैंने देखा कि धीरे धीरे वह पेड भी सूख गया। फिर एक बार जंगलमें आग लगी थी तो उसमें झुलसकर मर गया था।
तो अब अपने जंगलमें सबसे पुराना पेड कौन सा है?
एक तो यह बरगद ही है। लेकिन बाबा कहते थे कि चौथे सोतेके पारका शीशम शायद सबसे पुराना है। उधर कुछ ओक हैं वे भी पुराने हैं।
बेटे, पुराने पेडोंका विशेष ध्यान रखना। उन्होंने हमारी कई पीढीयाँ देखी होती हैं- हमारे दुख दर्द, जरा, व्याधिकी बातें पेडोंके पास लिखी होती हैं। हम उनकी भाषा नही पढ पाते, वरना कितना कुछ जान सकते थे।
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पचीस वर्ष बीत गए। हरियाको इसलिये यह गिनती याद है क्योंकि जब वे गांवसे चले थे तो लखमनाकी गोदमें दो माहका शिशु था। आज वही चंदर पचीस वर्षका हो गया है। लखमना और दुलारी तो उसके माँ बाप ठहरे। लेकिन मधुकरकी अम्मांने भी उसे पाला पोसा है। जैसे किसन कन्हैय्याको जशोदाने पोसा था। उसे जंगल ले जा जाकर वैदकी सिखाई है।

महामारी वाले पौधोंका झुरमुट भी मधुकरकी माँ और चंदरने जंगलमें खास तौरसे जतन किया है।
चंदरपुर गांव बसानेके पहले हरिया, लखमना और मधुकारकी अम्माँने आसपास कई कोसोंका इलाका देख डाला था। फिर दो नदियोंके संगमके पास यह जगह चुनी थी। चालीस परिवारोंको बसाने लायक खुली जमीन तैयार करनी थी। लेकिन उसके लिये कोई पेड न कटे ये भी देखना था। इस इलाकेके राजासे मिलकर गाँव बसाने और खेती करनेकी आज्ञा लेने हरिया और लखमना गए। खेतीकी वसूलीसे राजाको कितना कर दिया जायगा और जंगलका कितना हिस्सा गाँवका माना जायगा, यह सब तय करनेके बाद ही आज्ञा मिल पाई। लेकिन इतनेभरसे राजा संतुष्ट नही हुआ। उसने पूछा - तुम्हारे जो चालीस परिवार हैं, उनमें क्या हुनर है? हमारे राज्यके लिए तुम लोग किस काम आओगे?
हरियाका कौशल फिर एक बार अपनी धूम मचा गया। उसने बडे जतनसे बनाई चप्पलोंकी जोडी रानीके सामने रख दी। लखमना धानसे महीन चिऊडा बनाता था। उसने भी अपनी पोटली राजाके सामने रखी।
हूँ, तेरे किसान और चर्मकार बडे हुनरमंद लगते हैं। और कौनसे हुनर हैं?
सुगीराम बढई है - बाँसका काम करता है। और एक बूढी अम्माँ है जो वैदकी जानती है - पेडोंसे बात भी करती है। महामारीका इलाज ढूँढ लेती है।
तमाम चालीसों परिवारोंका पूरा हालचाल जान लेनेके बाद ही मंत्रीने उन्हें गांव बसानेका आज्ञापत्र दिया था। दो दिन लग गए थे, राजनगरमें। अब तो गांव पूरी तरह बस गया है। परिवार भी बढकर तीन सौ हो गए। दूसरे बस्तियोंके कई परिवार भी इधर आ गए। चंदरपुर धीरे धीरे एक व्यापारी केंद्र बन गया।
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चंदर बारह सालका था तबकी बात है। हरिया और मधुकारकी अम्माँको राजनगरसे बुलावा आया था। चंदर भी साथ गया था। उधर एक गांव पडता था शिवापुर - वहाँ महामारी आ गई थी। दाने निकलते, बदन तप जाता, फिर दाने फूटते थे, शरीर जलने लगता था और देखते देखते रोगी मर जाता। सारा खेल चार से आठ दिनोंमें खत्म हो जाता।
चंदर और मधुकरकी अम्माँने आस पासके जंगल छान डाले थे। अम्माँ हर पुराने पेडके पास जाती - उसे बताती - रोगियोंका पूरा ब्यौरा। हर शाम निराशामें सिर हिलाकर कहती,  देर लगेगी - किसी पेडको पता ही नही इस महामारीके विषय में।
लेकिन दो महीनेमें ही उन्होंने देखा - जंगलमें नीमके कई नए पौधे उग आये थे। इन जंगलोंमें ये नये ही थे। क्या ये महामारीसे छुटकारा दिलाएंगे? मधुकरकी अम्माँने सारे रोगियोंके लिए नियम बना दिया कि वे इन्ही पौधोंके आसपास रहेंगे। धीरे धीरे महामारीका प्रकोप कम हुआ। तबसे शिवापुर और चंदरपुर इलाकेमें नीमके पेड उगाने ओर बढानेका रिवाज चल पडा।
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सत्रहवीं सदीने अंगडाई ली। चंदर अब पचपन सालका था । रोजकी तरह वह जंगलमें आया था - वहाँ सबसे पुराना एक अगस्तिका पेड था। उसीके नीचे बैठकर चंदर उसे गांवका हालचाल सुनाता था।
पिछले दिनोंसे गांवमें एक अजीब रोग छा गया था। रोगीके मुँह से लार टपकती थी - आंखें मटमैली हो जातीं - उनसे कीच निकलती। फिर हाथ-पैर कांपने लगते, फिर गर्दन हिलने लगती। आठ दस दिनोंमें रोगी कंपकंपीसे जर्जर और ठंडा पडने लगता। फिर हिचकियोंके बीच उसकी मृत्यु हो जाती। चंदरने मधुकरकी अम्माँको मन ही मन हाथ जोडे और नये रोगियोंका पूरा ब्यौरा अगस्तिके पेडको बताने लगा।
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पांच दिन बाद पूर्णमासी थी। चाँदकी रोशनीसे अमृत बरस रहा था। उससे पुष्ट होकर हर पेड और पौधेका हर कण सचेतन हो रहा था। हवामें पेड झूम रहे थे, डोल रहे थे। उनके पत्तोंके छोरसे लहरियाँ फूट फूट कर वातावरणमें बिखर रही थीं। धीरे धीरे ये लहरियाँ एक दूसरेमें घुल मिल गईं और तमाम पेडोंके बीच एक झनकार बनकर छा गईं। अब हर पेड एक दूसरेसे बोल सकता था - एक दूसरेको समझ सकता था।
सबकी चेतनामें एक ही प्रश्न था जो वे अगस्तिके पेडसे पूछना चाहते थे, क्योंकि वह आयुमें सबसे बडा था। यह कौनसी महामारी है जो चंदरके लोमों और केशोंसे हमें पता चली? हमें कौनसे नये पौधोंका सृजन करना पडेगा? उसके लिये आवश्यक तन्तु किस किस पेडके पास हैं?
अगस्ती के साथ साथ जंगल में एक सोमका पेड भी लम्बी आयुका था। दोनोंने अपनी परतें खोलीं। इसी समय कोसों दूर स्थित पुराने पेडोंसे चलकर आ रही लहरियाँ भी उन्हें जानकारी दे रही थीं। तमाम जानकारीके एक एक चेतन बिंदुको हर पेड ने, हर पौधेने छान डाला। उस जानकारीसे तय हुए वे चार प्रभावी तंतु जो नये पौधेमें डालने होंगे। वे तंतु चार अलग अलग किस्मके पेड पौधोंसे चुने गए थे। एक तंतु तो ऐसी छोटी घासका था, जो अगले पंद्रह दिनके बाद अगले वर्ष तक सो जानी थी।
अगस्तीके पेडने आज्ञा दी - उन चार तंतुओंको लेकर नई घासकी प्रजाति बनेगी। उसे जमीनसे उगनेमें भी आठ-दस दिन लगेंगे। फिर उसे जानवरोंसे बचाते हुए बढाना पडेगा। इसकी जिम्मेदारी होगी बबूलकी कंटीली झाडियोंपर। एक महीनेमें वह घास पककर इन रोगी आदमियोंको रोग मुक्त करनेके लिए सहायक बनेगी। सोमवृक्ष ने इस घासको नाम दिया- असोका।
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असोका घासने अपने आस पासकी दूसरी घासोंसे केवल उस चेतनासंगमकी बात सुनी है। अगस्ती और सोम, दोनों पेड कबके ओझल हो चुके हैं। इसके अलावा कितने ही दूसरे पेड और पक्षी और जानवर भी। खुद असोका भी अब तक ढाई सौ बार सोकर जाग चुकी है। यानि मनुष्यकी भाषामें ढाई सौ वर्षकी हो गई है। उसने इतने वर्षोंतक उस लार टपकाने वाली महामारीके विषाणुओंको रोक रखा है। लेकिन आखिर कबतक? उसके आसपासके बडी आयुवाले पेड कट रहे हैं। उनके पास जो जानकारियाँ हैं, उतनी रखने लायक परतें असोकाके पास नही हैं - इसके लिये तो बडे बडे और पुराने वृक्षोंकी आवश्यकता है। उनकी परतोंमें ही लहरियों द्वारा लाई गई जानकारी सुरक्षित रह सकती है। इतनी छोटीसी बातको क्या मनुष्य प्राणी नही समझ सकता?

चंदरपुर गाँवमें पिछले तीन सौ वर्षोंमें हजारों परिवर्तन हुए। लेकिन असलमें उन्हें हजारो नही बल्कि एक ही परिवर्तन कहना ठीक रहेगा। वह ये कि चंदरपुरका बढ चढकर विस्तार हुआ। वह राजधानीका स्थान बना - यहाँ कई लडाईयाँ लडी गईं। व्यापारका केंद्र भी बना रहा। शिक्षाका भी। हर ओरसे विस्तार - बस यही थी चंदरपुरकी पहचान।
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बीसवीं सदीने अंगडाई ली। चंदरपुर अब देशका औद्योगिक केंद्र बन रहा था। राजकाजकी भाषा यहाँसे बनकर दूर दूर तक बोली जाती थी। समाज व्यवस्थामें कई परिवर्तन आए। अब राजा और राजपाट जैसा कुछ नही बचा। उसकी जगह लोकतंत्र आ गया था। घर बनानेके तरीके बदल गए। अब बाँसकी झोपडियोंकी जगह ईंटों और सिमेंटके मकान बनने लगे। पगडंडियों और गधोंकी सवारीके रास्ते बदल कर कोलतारके पक्के रास्ते बनने लगे। जात पात व्यवस्था चरम सीमापर थी। इसमें हरिया जैसे हुनरमंद चर्मकार या सुगीराम जैसे बढईके हुनरकी इज्जत नही थी। बल्कि चमडेका काम करनेके कारण उन्हें नीच कहा जाने लगा था। सीखनेके लिये लोग पेडोंके पास नही बल्कि स्कूलों और कॉलेजोंमे जाते थे। पेडोंने भी अब मनुष्यसे बातें करना बंद कर दिया था। लेकिन पेडोंके चेतनासंगममें अब भी मनुष्य और पशु पक्षीके रोगोंकी चर्चा होती थी। रोग निवारक प्रजातिके लिये आवश्यक तंतुओंकी छानबीन की जाती। जिन प्रजातियोंकें पास वे तंतु होते, उनसे उन्हें इकट्ठे कर नई प्रजाति पैदा की जाती। पेडोंने अपना धर्म नही छोडा था, लेकिन समस्या थी कि यह चेतना मनुष्यतक कैसे पहुँचाई जाये।
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इक्कीसवीं सदीने अंगडाई ली। चंदरपुर अब देशकी तीसरी राजधानी कहलाने लगा - पिछली सदीमें शिक्षा क्षेत्रका सबसे तेज दौर यहीं आया था। अब इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजीमें भी सबसे आगे चंदरपुर ही था। चालीस परिवारोंसे बसे चंदरपुरकी लोकसंख्या अब हो गई थी चालीस लाख। दूर दूरतक जहाँ भी नजर जाती थी, कई मंजिले मकान, शॉपिंग मॉल, पक्के रास्ते, उन पर दौडती बसें, कार। समुद्रके अथाह प्रवाहकी तरह आते जाते लोग।

और लोगोंने कहना शुरू किया - ओफ्फोह, जनसंख्या कितनी बढ गई है, वाहन कितने बढ गये हैं, लेकिन रास्ते अब भी वही, पचास वर्ष पुराने, सँकरे रास्ते? अरे, कोई इन्हें चौडा तो करो।

महानगर पालिकाकी ऊंची अट्टालिकामें मीटींग हुई - रास्ते चौडे करो - प्लान बनाओ। एस्टिमेट बनाओ।
नगर विकास विभागके सर्वेयर दौडे - रास्तोंकी नाप जोत करो। गिनो पेड गिनो - कितने पेड काटने पडेंगे। गिनो, गिनो जरा।
कुछ ही लोगोंने बातको ध्यानसे सुना - क्या कह रहे हैं? पेड काटने पडेंगे? अरे, किस रोडके पेडोंकी बात रही है? उधर उस रोडकी? लेकिन वहाँ तो कई सुंदर पुराने पेड है - हाँ, डेढ दो सौ वर्ष पुराने भी।
और इधर इस रोडपर भी? हाँ, कालेज रोडपर भी और तुकाराम पादुका रोडपर भी। अरे, इतने पुराने पेड भी काटेंगे?

इक्कीसवीं सदीके मनुष्यको अब पेडोंसे बात करना नही आता था लेकिन कई मनुष्योंको पेडोंकी चेतनासे संवेदना आ जाती थी। वे कुछ कुछ महसूस करते थे। चंदरपुरमें भी ऐसे कुछ लोग इकट्ठे हुए - उन्होंने कहा - पुराने पेड मत काटो।
फिर सभाएँ हुईं। थोडे नारे लगे। थोडे लेख छपे। लेकिन महानगरपालिकापर दबाव बढ रहा था - रास्ते चौडे करो - शहरमें वाहन इतने बढ रहे हैं, उन्हें चलानेके लिए रास्ते चाहिये। पेडोंकी जमीन बेकार ही अडचन कर रही है। रास्ते दो, पेड नही, रास्ते दो, पेड नही।

कुछ लोगोंने फिर सुझाया - अरे, पेडोंको काटनेकी बजाए इन्हें रोड डिवाइडरकी तरह इस्तेमाल करो। उन्होंने महापालिका आयुक्त और पदाधिकारियोंसे मीटिंग की। लेकिन सबको रास्ते चौडे करनेकी जल्दी पडी थी।
एक एक कर चंदरपुरके सभी रास्ते चौडे हुए। एक एक कर सारे पुराने वृक्ष कट गए। उस एक वर्षमें चंदरपुरमें करीब तीन हजार ऐसे वृक्ष कटे जो पचास वर्षसे भी अधिक आयुके थे। उन्हें काटकर जो रास्ते चौडे हुए उनकी कुल लम्बाई थी दो सौ किलोमीटर।
असोका और उस जैसे कई नन्हें घासोंकी कई प्रजातियाँ भी रास्तेके नीचे दब गई। उनपर रेत, मिट्टी, पत्थर, टार और सिमेंटकी परतें बिछी। असोकाका दम घुट गया।
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सन् २०१० की मार्चकी एक सुबह। चंदरपुरमें लार टपकाने वाली महामारी एक बार फिर आई। लोगोंके हाथ, पांव, अंगुलियोंमें कंपकंपी भर गई। फिर गर्दन कंपकंपाने लगी।
अस्पतालमें रोगियोंकी संख्या बढने लगी। इस अजनबी रोगकी रोकथामके लिये दुनियाँ भरके वैज्ञानिक जुटने लगे।
उधर पक्षी जगतमें भी खलबली मची। सतर्कताकी सूचना फैली कि ऐसे रोगसे मरे व्यक्तीका शरीर इधर उधर पडा हो तो कोई पक्षी उसपर चोंच न मारे।
चंदरपुरमें जो भी पेड पौधे बच गए थे, सबने जल्दी जल्दी अपनी लहरियोंसे दुबारा चेतनासंगम जमानेका प्रयास किया । लेकिन अब वे एक दूसरेसे काफी दूर दूर थे और अनुभवमें छोटे। उनकी जानकारीकी परतें सीमित थीं। कोई भी पेड या पौधा दुबारा असोका घासके सृजनकी बात नही उठा पाया।
महामारी बढती गई - मुनष्यको खाती गई।
सन् २०११ की मार्च महीनेकी एक सुबह। आज चंदनपुरका हर मनुष्य या तो मर चुका था या शहर छोड कर भाग चुका था। चंदनपुर रह गया था खाली सिमेंट कांक्रीटके रास्तोंका शहर।
हरियाका चंदरपुर मर चुका था।
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कई वर्ष बीते। अब देशमे एक नई संस्थाके चर्चे थे। जैवविविधता बचाओ जत्रा - अर्थात् जैबज। स्कूली बच्चोंकी प्रभात-फेरियाँ निकालना और उनके मार्फत देशके विभिन्न ठिकानोंमे जैवविविधताका अध्ययन करना, दुर्लभ प्रजातियोंको तलाशना, इत्यादि इस संस्थाके काम थे। उनको हर्रेकी भी तलाश थी।
एक लेखकके पांडुलिपी संग्रहमे हरियाकी कथा थी। उसका देहावसान हुआ तो उसके बेटेने सारी पाण्डुलिपियाँ कबाडीको दे डाली। कबाडीकी लडकी जैबज ग्रुपकी सदस्य थी। कबाडीने सोचा ये कागज बेटीके लिए महत्त्वपूर्ण होंगे। इस तरह हरियाकी कथा जैबजतक पहुँची।
फिर एक दिन रंगबिरंगी पोशाख पहने हजारों लडके-लडकियाँ चंदरपुरमे आये - जैसे हजारों तितलीयाँ। किसीके हाथमे बैनर, तो किसीके हाथमे चित्र, किसीके हाथमे पौधा, किसीके हाथमे पानी, किसीके हाथमे कुदाल और फावडे।
दूर राजधानीके शहरसे पुरातत्व अधिकारी भी आए। उन्होंने निशानियोंसे पहचाना - यही है पुराना चंदरपुर। यही है उसकी नगर-सीमाके निशान, करो शुरुआत।
ढोल-लेझिमके तालपर, एकसाथ पौधे लगानेका कार्यक्रम शुरू हुआ। बच्चोंने लाखो बीज बोए - हजारों पौधे लगाए। चंदरपुर शहरके बीचो - बीच जैबजके साथ आया इकलौता हर्रेका पौधा भी लगाया। और असोका? उसका पता नही चला।
पर यही पेड बडे होंगे और बहुत साल सृष्टी पर रहेंगे। सालों साल वें लोगोंकी बिमारियाँ देखेंगे। बिमारियोंकी दवाई जिन जिन पेड पौंधोके पास है उनकी जानकारी ज्ञानतंतुमे इकठ्ठा करके रखेंगे। उनके चेतना-संगम होंगे। जब भी नई बिमारी या महामारीमें जरूरत पडेगी, सारे पेड पौधे अपने प्रभावी तंतु देकर बिमारियोंपर असर करनेवाली वनस्पतियाँ उगाएंगे। मनुष्य और प्राणियोंको बिमारीसे बचानेका पेड पौधोंका काम रुकेगा नही - चलता रहेगा।
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लीना मेहेंदले, १५ सुनिती, जगन्नाथ भोसले मार्ग, मंत्रालय के सामने, मुंबई - ४०००२१.
published in july 2007 in Aksharparv, Raipur and included in my colletion of short stories man_na_jane_manko, published by Alokparv prakashan New Delhi

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