नाटिका - आँखे
(मूल 'डोळे' : मराठी)
रचयिता - श्रीमति माधुरी भिडे, बीए
14 Karanjiya House, Dr Mayre Road, Colaba Mumbai -5
अनुवादिका - Leena Agnihotri
C/O Dr B S Agnihotri, Mithila Research Institute, Darbhanga, Bihar
आँखे
मूल लेखिका - श्रीमति माधुरी भिडे ए.ऋ.
अनुवाद - लीना मेहेंदले संयुक्त सचिव / कार्यकारी
निदेशिका पीसीआरए
(स्थान
- अस्पताल का एक कमरा । आँखो पर पट्टी बँधाये निरंजन पलंग पर लेटा हुआ है। बाहर से निर्मला और डॉक्टर की बातचीत की मद्धिम आवाजें आती है। शब्द अस्पष्ट हैं, समझ में न आने लायक ।
निर्मला अंदर आती है तो पलंग चरमराता है।)
निर्मला - (निरंजन के पास जाकर) आप जाग रहे हैं निरंजन ! अब कैसा लग रहा है? मैंने सोचा, शायद आपको नींद लग गई।
निरंजन - (शांत, दुखरहित स्वर में) नहीं ! सोया नहीं था मैं। इन पट्टियों ने तो आँखे ढक दी हैं। नींद लगी या नहीं, ये दूसरे जानें भी कैसे?
निर्मला - (आहत होकर) ऐसा न कहिये। (फिर संभलकर) आप चुपचाप लेटे रहिये। डॉक्टर साहब ने कहा है, आपको आराम की जरूरत है।
निरंजन - (आवाज में थोड़ा सा दुख, थोड़ी दार्शनिकता) आराम ! जो काम की घड़ी के पश्चात् ही आता है। अब तो आराम ही आराम है, जीवनभर ! मन न चाहे, तो भी ! क्योंकि अब काम ही नहीं है।
निर्मला - पर निरंजन ........
निरंजन - (निर्मला की नकल करते हुए) पर निरंजन, ठीक होना है न आपको? (सामान्य स्वर) यही ना? (अतिशय गंभीर स्वर) अंधे के कान बड़े तेज हो जाते है निर्मला ! तुम बाहर धीरे-धीरे बोल रही थी न डॉक्टर से ? वह सब मैंने सुन लिया है - सब कुछ ! एॅक्सीडेंट रैश था, बहुत बड़ी चोट पहुँची है आँखो में। ऑपरेशन करना पड़ेगा। पर वह भी एक चान्स ही है। डॉक्टर ने यही कहा है न निर्मला ?
निर्मला - (डरकर) सुन लिया आपने सारा? पर नहीं यह तो नहीं, कहा डॉक्टर साहब ने। वे बोले हैं ट्रान्सप्लान्ट अवश्य सफल होगा।
निरंजन - मैंने तो ऐसा कुछ नहीं सुना।
निर्मला - कॉरीडॉर से जाते जाते कहा है उन्होंने । अधूरा सुनकर मन में कुछ मत बैठा लीजिए।
निरंजन - (उसकी अनसुनी कर) सच निर्मला ! आँख भी क्या ची.ज बनाई है उपरवाले ने। एक लिजलिजा विचित्र आकार ! पानी से भरा हुआ। जरा हाथ लगाओ और पानी की धारा बहती है। पर उसके बिना सारा अंधकार ! (एकाएक भावविव्हल होकर) मेरी आँखे खतम हो जायेंगी अब निर्मला ? (जैसे रेडियो पर समाचार सुना रहा हो) प्रसिद्ध चित्रकार निरंजन की आँखे एॅक्सीडेंट में जाती रहीं ! (फिर पहले जैसे स्वर में) फिर बचेगा क्या? जीरो, जीरो। चित्रकार में से आँखे घटा दो निर्मला, बस जीरो बाकी रह जाता है।
निर्मला - पर निरंजन, विश्र्वास कीजिए। डॉक्टर साहब ने कहा है .............
निरंजन - (उसे बीच ही में रोकते हुए) ऐसे ही राजगीर से आ रहा था मैं, तूफान की गति से ड्राइव करता हुआ। एक नशा सा था, एक बेहोशी थी - गति की बेहोशी, चारो ओर फैले हुए सृष्टि सौंदर्य की बेहोशी, धंटाभर पहले पूरे किये हुए चित्र की बेहोशी ! वह चित्र, निर्मला ! पीछे फैला हुआ अनन्त नीला आकाश, और उससे स्पर्धा करता वह एकाकी शिखर - ऊँचा ऊँचा । निर्मला .....
निर्मला - क्या ?
निरंजन - वही मेरा अंतिम चित्र होगा । है ना ? फिर डॉक्टर की आवाज, उनके शब्द, कान में ऐसे घुसे, मानों लाल, तप्त लोहे की छड़ कान में धुसी हो।
निर्मला - (अधिकारपूर्वक डाँटते हुए) आप कुछ सुनेंगे भी निरंजन ? डॉक्टर साहब ने कहा है (प्रत्येक शब्द पर जोर देते हुए) ट्रान्सप्लान्ट जरूर सफल होगा।
निरंजन - (थोड़ा शांत होकर) अच्छा, होगा तो होने दो। एक मजे की बात कहूँ निर्मला ? अभी मैंने कहा था न कि अंधो के कान बड़े तेज होते हैं? तभी याद आया। पहले मैं सोचता था, अंधे के पास होता है ही क्या? रुप नहीं, केवल गंध और स्पर्श, और कान। पर कुछ और भी होता है, एक सुप्त शक्ति - एक छठा इंद्रिय!
निर्मला - (अस्वस्थ होकर) बस ! यह अंधों की चर्चा छोड़िये। क्या याद आया था आपको, कहिये ना।
निरंजन - बताता हूँ ना ! (छोटे बच्चों जैसी उत्सुकता, कौतुहल भरी आवाज में) एक छोटा सा कमरा था, उसमें एक छोटा सा लड़का था - मैं ! मैंने माँ से पूछा था - माँ आज जब तुम गुरुजी से सितार सिखोगी, तब मैं यहाँ बैठूँ? माँ बोली बेठो ना! मैंने कहा गुरुजी बिगड़ेंगे तो ? माँ बोली, तुम चुपचाप बैठना। गुरुजी देखेंगे कैसे? (चुटकी बजाकर) सच, गुरुजी थे अंधे। मैं सिकुड़कर एक कोने मैं बैठा था। एक ओर खुशी थी कि सितार सुनूँगा। पर डर भी था कि गुरुजी डाटेंगे तो।
निर्मला - (उत्सुकता से) फिर?
निरंजन - मैं साँस रोककर बैठा था। तभी ठक्-ठक् गुरुजी की लाठी बजी। वह अंदर आये।
मैं और सिकुड़ गया। पर दिल धड़क रहा था।
निर्मला - (उसी मूड में) फिर ?
निरंजन - गुरुजी आकर चटाई पर बैठे। एक ही क्षण। फिर एकाएक चेहरे मेरी ओर घुमाकर उन्होंने हाथ जोड़े। बोले प्रणाम।
निर्मला - हे भगवान !
निरंजन - भयकी एक लहर दौड़ गई शरीर में। अभी भी उसकी याद से ...........। सच निर्मला, कैसे जाना होगा उन्होंने?
निर्मला - कैसे कहूँ। पर अंधो की आँखे कितनी विचित्र होती हैं ना? (भावना में बहते हुए) मैं एक बार अंधो के स्कूल में कहानी सुनाने गई थी, जब आप लखनऊ गये थे।
निरंजन - फिर कौन सी कहानी कही थी तुमने?
निर्मला - छोटे बच्चों को कहानी सुनाना कितना अच्छा लगता है मुझे! परियों की, राजकुमारों की कहानी! सुनते सुनते उनकी छोटी सी आँखों में आश्चर्य भर जाता है। कहानी में राक्षस हों तो वे पास आ जाते हैं। पर .... पर उस दिन, मैं सिंदबाद की कहानी सुना रही थी। समुद्र, पर्वत, पेड़, पौधे सभी थे। पर सामने बैठी हुई मूर्तियों की आँखे दृश्यविहीन, भावविहीन थीं। मेरी कहानी की कोई प्रतिक्रिया उन आँखो में नहीं थी। कितना भयानक था (लम्बी साँस छोड़ती है।)
निरंजन - (दुख भरी हँसी से) अब रोज नहीं अनुभूति होगी तुम्हें। मुझसे बोलते समय।
निर्मला - (चिल्लाकर) निरंजन।
(डॉक्टर दरवाजे पर आकर खड़े हो जाते हैं उनकी ओर देखते हुए) देखिये न डॉक्टर साहब, यह कैसी बाते करते हैं।)
डॉक्टर - क्या हुआ निरंजन ? आपको तो बिल्कुल शांत पड़े रहना चाहिये।
निर्मला - डॉक्टर साहब, एक ही बात उनके मन में घर कर गई है कि उनकी आँखे जाती रहेंगी। आप की बात को अधूरा सुनकर ............।
निरंजन - अधूरा नहीं डॉक्टर, पूरा। वही मैं आपसे पूछता हूँ डॉक्टर। क्या होने वाला है, मुझे सच सच बता दीजिए। न मैं छोटा बच्चा हूँ और न इतने कमजोर मन का कि आप मुझे अंधेरे में रखें।
डॉक्टर - (सौम्य समझाने के लहजे में) पेशंट को झूठ कहें, अंधेरे में रखे, यह हम कभी नहीं चाहते। मैं आपसे अपना निर्णय कहने ही आया हूँ। पर आपको शांत रहना होगा।
निरंजन - कहिये डॉक्टर, मैं शांत हूँ।
डॉक्टर - आप की आँखों में चोट पहुँची है। देखने की क्रिया जिस हिस्से में होती है, वहीं पर। दवाईयों से घाव भर जाएगा। पर आप देख न सकेंगे।
निरंजन - यही, यही तो। याने मैं अंधा हो जाऊँगा।
डॉक्टर - ठहरिये। मुझे पूरी बात कह लेने दीजिए। आप की आँखो का ट्रान्सप्लान्ट किया जा सकता है। किसी दूसरे मृत व्यक्ति की आँखे आपकी आँखो की जगह लगाई जायेंगी।
निर्मला - (खुश होते हुए) फिर ये देख सकेंगे डॉक्टर साहब?
डॉक्टर - हाँ। ट्रान्सप्लान्ट सफल होने का बहुत चान्स है। फिर ये देख सकेंगे।
निर्मला - सुनिये, सुनिये निरंजन, डॉक्टर साहब क्या कह रहे हैं।
निरंजन - (मानो अपने से बोल रहा हो) दूसरे की आँखे? एक मृत व्यक्ति की? वह व्यक्ति कोई भी हो सकता है। कोई चोर, बड़ा डाकू, शराबी? (निश्चयपूर्वक) नहीं डॉक्टर। मैं दूसरे की आँखे नहीं लगवाऊँगा।
डॉक्टर - लेकिन निरंजन..........।
निरंजन - नहीं डॉक्टर, उन आँखो ने जो कुछ भी देखा होगा, उसकी एक छवि, एक त्थ््रद्रद्धड्ढद्मद्मत्दृद वहाँ होगा। उन अपवित्र आँखो में एक चित्रकार की दृष्टि कहाँ से लाऊँगा? मेरे चित्रों पर छाप होगी किसी शराबखाने की, जेलकी, डकैती की। (सिहर कर) नहीं, डॉक्टर नहीं, नहीं।
डॉक्टर - (समझाते हुए) कैसी बातें करते हैं आप निरंजन? आँख तो केवल एक लैंस है। किसी दृश्य की छाप बनेगी दिमागपर, आँख पर नही।
निरंजन - शायद। पर मैं कलाकार हूँ, डॉक्टर नहीं। मेरा दिल, मेरी भावना जो कहती है, वही मैं समझता हूँ। वे आँखे, वे आँखे किसी अरसिक की होंगी - हो सकता है सौंदर्य का स्वाद उन्होंने जाना ही न हो। उफनते हुए सागर के दिल में बसा चंद्रमा का प्रेम, शायद वो आँखे देख ही न सकें। (कुछ ठहरकर) या हो सकता है वे आँखे कलर ब्लाइंड हों, रंगो के सूक्ष्म भेद पहचानने में असमर्थ, या .............. (धीमी पदचाप, की आवाज दरवाजे में एक स्त्री आकर खड़ी हो जाती है।)
स्त्री - (गंभीर, उदास पर निश्चयी स्वर में) आप भूल कर रहें हैं निरंजन बाबू। किसी अरसिक की नहीं, एक अत्यंत लायक आदमी की आँखे देने आई हूँ मैं।
निरंजन - (चौंककर) कौन? कौन बोल रहा है?
निर्मला - कौन हैं आप?
डॉक्टर - आप किनसे मिलना चाहती हैं?
स्त्री - चित्रकार निरंजन बाबू से।
डॉक्टर - आप का काम? आप का ...... नाम।
स्त्री - मैं मिसेस् शर्मा। मेरे पति इसी अस्पताल में हैं - इमर्जेंसी में। (काँपती आवाज में) कभी भी, किसी भी क्षण...............
(गला रुंध जाता है)
निरंजन - पर मुझसे आप का क्या काम? कौन हैं आपके पति?
स्त्री - कोई नहीं, केवल आपके प्रशंसक। आपके हर चित्र को उन्होंने जाना है। हर रेखा को सराहा है। हर रंग को चाहा है। वे सौंदर्य के पुजारी है। सौंदर्य उन्हें मुग्ध कर देता है (संभलकर) उनकी आँखे आपको देने आई हूँ मैं।
निरंजन - पर .............
स्त्री - ना मत कहिये निरंजन बाबू। आपके एॅक्सीडेंट का समाचार सुनकर ही उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की है।
दिल पर पत्थर रखकर उनकी अंतिम इच्छा सुनाने आई हूँ।
निर्मला - (कांप कर) क्या कर रही हैं आप ? अन्तिम इच्छा ?
स्त्री - हाँ अन्तिम इच्छा। और वह सुनाने का मौका आया हैं मुझपर (दुखकातर होकर बोलते-बोलते रोने लगती है। )
डाक्टर - शांत होइये, जरा यहाँ बैठ जाइये।
स्त्री - (आँसू पोंछकर) नहीं, पहले मैं पूरी बात कह लूँ।
डॉक्टर साहब, मेरे पति उमंग के इन दिन में ही कैन्सर के पेंशट हैं। मौत उनके निकट है। इन्तजार कर रही है। शायद कल का, परसों का, किसी खास क्षण का। उनके कलाकार मन का दुख यही है कि दुनियाँ की कला से वे दूर जा रहे हैं। निरंजनबाबू
, आपकी कला के वे अनन्य उपासक हैं। तभी तो उनकी इच्छा है कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी आँखें आप लें। उन आँखों के माध्यम से आपकी चित्रकला जीवित रहेगी। आपके के चित्रों के माध्यम से उनकी आँखें। (आवेग से ) आप लेंगे ना उनकी आँखें ? बोलिये ना ! कितनी कम दुनियाँ देखी है उन्होंने। उन आँखों को सृष्टि का सारा सौंन्दर्य देखने का मौका दीजिए। सारी आकांक्षाएँ पूरी कर लेने दीजिए। नहीं मानेंगे आप ?
निर्मला - (उस स्त्री का हाथ अपने हाथों में लेती है ) जरूर मानेंगे । इन्हें मानना ही पड़ेगा।
डॉक्टर - जाइये आप मिसेस शर्मा । आपके पति को आपकी आवश्यकता है।
स्त्री - जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँ मैं ?
निरंजन - ( मानों किसी ने जादू कर दिया हो ) माननी ही पडेगी मुझे आपकी बात। आप उनसे कहिये, वे आँखे मेरे लिए ईश्र्वर का वरदान है। (उत्साहित शब्दों में ) डॉक्टर, यह ट्रान्सप्लांट सफल होगा।
डॉक्टर - अवश्य होगा निरंजन । आपकी इच्छा, सहयोग और आपके मन की दृढता ही तो सबसे महत्वपूर्ण है। यही समझाने मैं आया था। मिसेस शर्मा, आप मेरे साथ आइये।
स्त्री - सॉरी डॉक्टर। सारी तैयारी आप लोग ही करें। मुझे जाना है अपने पति के पास। जीवनभर के लिए उनका रूप आँखों में बसाना है। उनका थोड़ा सा साथ हृदय के कोने कोने में भरकर रख लेना है। बहुत कम समय बचा है मेरे पास ।
(धीमे कदमों से जाती है। )
(डॉक्टर कुछ बोलना चाहते हैं, फिर बाहर चले जाते हैं। )
निरंजन - (कुछ देर स्तब्ध रहकर जाती हुई पदचाप सुनता है ) निर्मला, कुछ दैवी, अलौकिक आज आँखों के बिना ही मैंने देखा है निर्मला !
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निरंजन - (उसकी अनसुनी कर) सच निर्मला ! आँख भी क्या ची.ज बनाई है उपरवाले ने। एक लिजलिजा विचित्र आकार ! पानी से भरा हुआ। जरा हाथ लगाओ और पानी की धारा बहती है। पर उसके बिना सारा अंधकार ! (एकाएक भावविव्हल होकर) मेरी आँखे खतम हो जायेंगी अब निर्मला ? (जैसे रेडियो पर समाचार सुना रहा हो) प्रसिद्ध चित्रकार निरंजन की आँखे एॅक्सीडेंट में जाती रहीं ! (फिर पहले जैसे स्वर में) फिर बचेगा क्या? जीरो, जीरो। चित्रकार में से आँखे घटा दो निर्मला, बस जीरो बाकी रह जाता है।
निर्मला - पर निरंजन, विश्र्वास कीजिए। डॉक्टर साहब ने कहा है .............
निरंजन - (उसे बीच ही में रोकते हुए) ऐसे ही राजगीर से आ रहा था मैं, तूफान की गति से ड्राइव करता हुआ। एक नशा सा था, एक बेहोशी थी - गति की बेहोशी, चारो ओर फैले हुए सृष्टि सौंदर्य की बेहोशी, धंटाभर पहले पूरे किये हुए चित्र की बेहोशी ! वह चित्र, निर्मला ! पीछे फैला हुआ अनन्त नीला आकाश, और उससे स्पर्धा करता वह एकाकी शिखर - ऊँचा ऊँचा । निर्मला .....
निर्मला - क्या ?
निरंजन - वही मेरा अंतिम चित्र होगा । है ना ? फिर डॉक्टर की आवाज, उनके शब्द, कान में ऐसे घुसे, मानों लाल, तप्त लोहे की छड़ कान में धुसी हो।
निर्मला - (अधिकारपूर्वक डाँटते हुए) आप कुछ सुनेंगे भी निरंजन ? डॉक्टर साहब ने कहा है (प्रत्येक शब्द पर जोर देते हुए) ट्रान्सप्लान्ट जरूर सफल होगा।
निरंजन - (थोड़ा शांत होकर) अच्छा, होगा तो होने दो। एक मजे की बात कहूँ निर्मला ? अभी मैंने कहा था न कि अंधो के कान बड़े तेज होते हैं? तभी याद आया। पहले मैं सोचता था, अंधे के पास होता है ही क्या? रुप नहीं, केवल गंध और स्पर्श, और कान। पर कुछ और भी होता है, एक सुप्त शक्ति - एक छठा इंद्रिय!
निर्मला - (अस्वस्थ होकर) बस ! यह अंधों की चर्चा छोड़िये। क्या याद आया था आपको, कहिये ना।
निरंजन - बताता हूँ ना ! (छोटे बच्चों जैसी उत्सुकता, कौतुहल भरी आवाज में) एक छोटा सा कमरा था, उसमें एक छोटा सा लड़का था - मैं ! मैंने माँ से पूछा था - माँ आज जब तुम गुरुजी से सितार सिखोगी, तब मैं यहाँ बैठूँ? माँ बोली बेठो ना! मैंने कहा गुरुजी बिगड़ेंगे तो ? माँ बोली, तुम चुपचाप बैठना। गुरुजी देखेंगे कैसे? (चुटकी बजाकर) सच, गुरुजी थे अंधे। मैं सिकुड़कर एक कोने मैं बैठा था। एक ओर खुशी थी कि सितार सुनूँगा। पर डर भी था कि गुरुजी डाटेंगे तो।
निर्मला - (उत्सुकता से) फिर?
निरंजन - मैं साँस रोककर बैठा था। तभी ठक्-ठक् गुरुजी की लाठी बजी। वह अंदर आये।
निरंजन - कहिये डॉक्टर, मैं शांत हूँ।
डॉक्टर - आप की आँखों में चोट पहुँची है। देखने की क्रिया जिस हिस्से में होती है, वहीं पर। दवाईयों से घाव भर जाएगा। पर आप देख न सकेंगे।
निरंजन - यही, यही तो। याने मैं अंधा हो जाऊँगा।
डॉक्टर - ठहरिये। मुझे पूरी बात कह लेने दीजिए। आप की आँखो का ट्रान्सप्लान्ट किया जा सकता है। किसी दूसरे मृत व्यक्ति की आँखे आपकी आँखो की जगह लगाई जायेंगी।
निर्मला - (खुश होते हुए) फिर ये देख सकेंगे डॉक्टर साहब?
डॉक्टर - हाँ। ट्रान्सप्लान्ट सफल होने का बहुत चान्स है। फिर ये देख सकेंगे।
निर्मला - सुनिये, सुनिये निरंजन, डॉक्टर साहब क्या कह रहे हैं।
निरंजन - (मानो अपने से बोल रहा हो) दूसरे की आँखे? एक मृत व्यक्ति की? वह व्यक्ति कोई भी हो सकता है कोई चोर, बड़ा डाकू, शराबी? (निश्चयपूर्वक) नहीं डॉक्टर। मैं दूसरे की आँखे नहीं लगवाऊँगा।
डॉक्टर - लेकिन निरंजन..........।
निरंजन - नहीं डॉक्टर, उन आँखो ने जो कुछ भी देखा होगा, उसकी छवि, एक त्थ््रद्रद्धड्ढद्मद्मत्दृद वहाँ होगा। उन अपवित्र आँखो में एक चित्रकार की दृष्टि कहाँ से लाऊँगा? मेरे चित्रों पर छाप होगी किसी शराबखाने की, जेलकी, डकैती की। (सिहर कर) नहीं, डॉक्टर नहीं, नहीं।
डॉक्टर - (समझाते हुए) कैसी बातें करते हैं आप निरंजन? आँख तो केवल एक लैंस है। किसी दृश्य की छाप बनेगी दिमागपर, आँख पर नही।
निरंजन - शायद। पर मैं कलाकार हूँ, डॉक्टर नहीं। मेरा दिल, मेरी भावना जो कहती है, वही मैं समझता हूँ। वे आँखे, वे आँखे किसी अरसिक की होंगी - हो सकता है सौंदर्य का स्वाद उन्होंने जाना ही न हो। उफनते हुए सागर के दिल में बसा चंद्रमा का प्रेम, शायद वो आँखे देख ही न सकें। (कुछ ठहरकर) या हो सकता है वे आँखे कलर ब्लाइंड हों, रंगो के सूक्ष्म भेद पहचानने में असमर्थ, या .............. (धीमी पदचाप, की आवाज दरवाजे में एक स्त्री आकर खड़ी हो जाती है।)
स्त्री - (गंभीर, उदास पर निश्चयी स्वर में) आप भूल कर रहें हैं निरंजन बाबू। किसी अरसिक की नहीं, एक अत्यंत लायक आदमी की आँखे देने आई हूँ मैं।
निरंजन - (चौंककर) कौन? कौन बोल रहा है?
डॉक्टर - अवश्य होगा निरंजन । आपकी इच्छा, सहसोग और आपके मन की दृढता ही तो सबसे महत्वपूर्ण है। इसीलिए मैं आया था। मिसेस शर्मा, आप मेरे साथ आइये।
स्त्री - सॉरी डॉक्टर। सारी तैयारी आप लोग ही करें। मुझे जाना है अपने पति के पास। जीवनभर के लिए उनका रूप आँखों में बसाना है। उनका थोड़ा सा साथ हृदय के कोने कोने में भरकर रख लेना है। बहुत कम समय बचा है मेरे पास ।
(धीमे कदमों से जाती है। )
(डॉक्टर कुछ बोलना चाहते हैं, फिर बाहर चले जाते हैं। )
निरंजन - (कुछ देर स्तब्ध रहकर जाती हुई पदचाप सुनता है ) निर्मला, कुछ दैवी, अलौकिक आज आँखों के बिना ही मैंने देखा है निर्मला !
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